Blogvani.com आपमरूदा....: 2013

Sunday, June 30, 2013

DIVORCE is a due need in marriages based on LOVE !!!


एक समय में भारतीय विवाह व्यवस्था जितना सरल अौर स्थिर था अाज वो उतना ही जटिल अौर अस्थिर हो गया है । 
अाखिर किसी भी समाज को विवाह की जरुरत क्यूं है ? ... सीधा जबाब है ... दो अात्माअों या व्यक्तियों या शरीरों के परस्पर वैध मिलन के लिये, जो एक बुनियादी अौर नैशर्गिक जरूरत है, शारीरिक अौर श्रृजन कि दृष्टि से ... अौर लम्बे समय तक स्थिर व बेहतर जीवन व्यवस्था के लिये । अब अगर ऐसे में कोई ये कहे कि पिछले पाँच हज़ार साल से अाने वाले पाँच हज़ार साल तक इन दोनों का एक साथ मिल पाना संभव नहीं तब समस्या अौर गंभीर हो जाती है । अब ऐसे में एक साधारण व्यक्ति कैसे निर्णय ले कि विवाह का अाधार शारीरिक(सामाजिक) हो या प्रेम का ? ... लिया जा सकता है निर्णय अगर हम समझ पायें कि शारीरिक(सामाजिक) एवं प्रेम के अाधार में क्या बुनियादी फर्क है । अौर सैकड़ो वर्षों प्रचलन में चला अा रहा शारीरिक बुनियाद पर अाधारित विवाह कितना सक्षम है ठोस अौर लम्बे सम्बंध के लिये ।
कायेदे से देखा जाये तो विवाह दो शरीरों का हो सकता है ... दो अात्माअों का विवाह संभव नहीं ... दो अात्माअों का प्रेम हो सकता है । अगर प्रेम से विवाह निकलता हो तब तो प्रेम एक गहरा अर्थ ले लेता है  ... लेकिन अगर विवाह दो पंडितों अौर दो ज्योतिषियों के हिसाब किताब से निकलता हो, या जाति के विचार से निकलता हो या धन के विचार से निकलता हो तो वैसा विवाह कभी भी शरीर से गहरा नहीं जा सकता । लेकिन ऐसे विवाह का एक फायेदा है ... शरीर जिन समाजों में विवाह का अाधार है उनमें विवाह स्थिर होगा ... जीवन भर चल जायेगा । क्युंकि शरीर अस्थिर चीज़ नहीं है ... शरीर बहुत स्थिर चीज़ है उसमें परिवर्तन बहुत धीरे धीरे अाता है अौर पता भी नहीं चलता ... शरीर जड़ता का तल है । इसलिए जिन समाजों ने ये चाहा की विवाह स्थिर हो ... एक ही विवाह काफी हो जिवन भर के लिये, बदलाहट की जरुरत ना पड़े ... उनको प्रेम अलग कर देना पड़ा । क्योंकि प्रेम का सम्बंध सीधे  मन से होता है ... अौर मन चंचल है ... जो समाज प्रेम की बुनियाद पर विवाह को निर्मित करेंगे उन समाजों में तलाक अनिवार्य होगा । उन समाजों में विवाह परिवर्तित होगा ... विवाह स्थायी व्यवस्था नहीं हो सकती । क्योंकि प्रेम तरल है, मन चंचल है, शरीर स्थिर अौर जड़ है ... अापके घर में एक पत्थर पड़ा हुअा है ... सुबह पत्थर पड़ा था, सांझ तक वहीं पड़ा रहेगा ... सुबह फूल खिला था, सांझ तक मुरझा जायेगा अौर गिर जायेगा !! फूल ज़िन्दा है ... जन्मेगा ... जियेगा ... मरेगा !! पत्थर मुर्दा है ... वैसे का वैसा सुबह पड़ा था ... वैसे ही शाम को भी पड़ा रहेगा ... पत्थर बहुत स्थिर है । विवाह पत्थर की तरह है । शरीर के तल पर जो विवाह है वो स्थिरता लाता है ... समाज के हित में है ... लेकिन एक एक व्यक्ति के अहित में है, कयोंकि वो अस्थिरता शरीर के तल पर लायी गयी है, अौर प्रेम से बचा गया है ... इसलिये शरीर से ज्यादा पति अौर पत्नी का मिलन नहीं पहुंच पाता गहरे में । एक यांत्रिक रूटीन हो जाता है, उस अनुभव को रीपीट करते रहते हैं अौर जड़ होते चले जाते हैं । लेकिन उससे ज्यादा गहराई कभी नहीं मिलती संबन्ध या मिलन की । जहां प्रेम के बिना विवाह होता है उस विवाह में अौर वेश्या के यहां जाने में बुनियादी भेद नहीं ... थोड़ा सा भेद है । वेश्या को अाप एक दिन के लिये शरीर से स्वीकारते हैं अौर पत्नी को अाप जीवन भर के लिये शरीर से स्वीकारते हैं । ज्यादा फर्क नहीं है ... जहां प्रेम नहीं है वहां मिलन कि मजबूरी है ... चाहे वो एक दिन की मजबूरी हो या पूरी उम्र की । हालांकि साथ रहने से एक तरह का पारस्परिक सम्बंध हो जाता है , लोग उसी को प्रेम समझ लेते हैं, जबकि वो प्रेम नहीं है । शर्तिया वो वैसा अात्मा तृप्त करने वाला प्रेम नहीं जिसकी खोज की अाड़ में विवाह से पूर्व हम कई परिक्षणों से भी नहीं हिचकते । शरीर के अाधार पर विवाह में शरीर के तल से गहरा सम्बंध कभी भी उत्पन्न नहीं हो पाता अौर अात्मा अतृप्त ही रह जाती है । 
जो लोग प्रेम की बुनियाद पर विवाह करते हैं उनका मिलन शरीर के तल से थोड़ा गहरा जाता है । वो मन तक जाता है ... उसकी गहराई मनोवैज्ञानिक है । लेकिन विवाह में बंधते ही उनकी दशा भी जड़ हो जाती है ... अौर रोज रोज पुनरुक्त होने से वो भी शरीर के तल पर अा जाता है, अौर यांत्रिक हो जाता है । पश्चिम नें जो व्यवस्था विकसित की है दो सौ वर्षों में प्रेम विवाह की वो मानसिक तल तक ले जाती मिलन को ... लेकिन उसका असर ये है कि वहां समाज अस्त व्यस्त हो गया है । कयोंकि मन का कोई भरोसा नहीं है ... वो अाज कुछ पसंद करता है अौर कल उसमें एक नयी चाह पनपने लगती है ... सुबह कुछ कहता है, सांझ कुछ कहने लगता है ... घड़ी भर पहले कुछ कहता है, घड़ी भर बाद कुछ अौर कहने लगता है । शायद अापने सुना होगा की वायरन ने जब शादी की ... तो कहते हैं कि तब तक वो कोई साठ - सत्तर स्त्रियों से सम्बंध बना चुका था । एक स्त्री ने उसे मजबूर भी कर दिया विवाह के लिये । अौर जब वो चर्च से बाहर अा रहा था विवाह कर अपनी पत्नी का हाथ पकड़े, घंटीयां बज रही है चर्च की मोमबत्तीयां जल रही हैं । अभी जो मित्र बधाई देने अाये थे वो विदा हो रहें हैं ... अौर वो अपनी पत्नी के साथ सामने खड़ी घोड़ा गाड़ी में बैठने जा रहा है ... तभी उसे चर्च के सामने ही एक अौर स्त्री जाती हुयी दीखी ... एक छन के लिये वो भूल गया अपनी पत्नी को, उसके हाथ को, उस विवाह को ... सारा प्राण उस स्त्री का पीछा करने लगा । जाके वो गाड़ी में बैठा बहुत ईमानदार अादमी रहा होगा उसने पत्नी से कहा कि तुमने कुछ ध्यान दिया, एक अजीब घटना घट गयी ... कल तक मेरा तुझसे विवाह नहीं हुया था तो विचार करता था कि तुम मुझे मिल पायेगी या नहीं ... तेरे सिवाय मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ता था ... अौर जब विवाह हो गया है, मैं तुमहारा हाथ पकड़े नीचे उतर रहा हूँ, मुझे एक स्त्री दिखाई पड़ी गाड़ी के उस तरफ जाते हुये ... मैं तुम्हें भूल गया अौर मेरा मन उस स्त्री का पीछा करने लगा ... अौर एक छन को मुझे लगा कि काश ये स्त्री मुझे मिल जाये !!! मन इतना चंचल है !!   
तो जिन लोगों को समाज को व्यवस्थित रखना था उन्होने मन के तल पर मिलन को नहीं जाने दिया ... उसे रोक लिया शरीर के तल पर ... विवाह करो ! ... प्रेम नहीं !! 
शरीर के तल पर स्थिरता हो सकती है ... मन के तल पर स्थिरता बहुत मुश्किल है !!   
हजारों साल पुराने शरीर अाधारित पारम्परिक वैवाहिक व्यवस्था को हमने पिछले कई सालों से जीर्ण शीर्ण करार दे एक सिरे नकार दिया है ... अौर प्रेम या मन अाधारित अस्थिर विवाह के लिये अभी हम तैयार नहीं सामाजिक अौर मानसिक रूप में फिर ऐसे में सवाल उठता है कि अाज भारतीय समाज में विवाह का अाधार क्या हो  ? क्युंकि जबरदस्ती के मिले जुले अाधार वाले विवाहों के भी कोई बहुत खुशनुमा परिणाम नहीं दिखे हैं पिछले कई सालों से ... अौर विपरीत प्रकृति के दो अाधारों को मिलाकर एक नया अाधार बनाना कम विस्फोटक नहीं भविष्य के लिये !! उदाहरण के लिये पश्चिम को देख लें !!
फिर कहीं ये अागाज़ तो नहीं विवाह व्यवस्था पर सवालिया निशान का भविष्य के लिये ..... ???? 

नोट : ब्लाग में ज्यादातर तर्क अाचार्य रजनीश के स्पीच " संभोग से समाधी तक " से लिये गये हैं          


Tuesday, May 21, 2013

जिंदगीनामा !!




मैं तरन्नुम यु ही गाता चला गया .... 
न सोचा की, क्यूँ मैं गाता चला गया ....
कभी न चाहा की किसी को परेशान मैं करूँ .....
फिर भी जी ने हमें न बक्शा एक पल ....
हर समय का तो हिसाब बराबकर रखा .....
हर गलती पे हमें और जोर से चखा .....
कभी न दिया हमारे सही कदमों का हिसाब  .....
कभी न छाप सकेगी मेरे सच की वो किताब .....

जो हमें ज़ख्म ही देने थे तो क्यूँ आस दिया ....
या कहूं मौत ही देनी थी तो क्यूँ सांस दिया ....  
न मैं बदलूँगा खुद को किसी लालच में ....
क्यूंकि जीने का मज़ा है बस एक इसी सच में ....
जिंदगी क्यूँ ऐसी ही अनबूझ पहेली सी है ....
जब तक तुम जिंदा हो वो एक सहेली सी है .....
जैसे ही दम तुम्हारा खुद से निकल जाएगा ....
फिर ये याराना तुम्हारा साफ़ धुल जाएगा ....
तुम खड़े जहन्नुम इसे कोस रहे होगे ....
ये तुम्हारे ही चले जाने जश्न मनायेगा ....


ज़िंदगी रोज़ नए सपने दिखाती क्यूँ है ....
फिर सुबह तोड़ के हमको यूँ सताती क्यूँ है ....
हमने न माँगी थी हर रोज़ जीने की ये आस ....
फिर भी हर रात निर्मुयी हमें लुभाती क्यूँ है ....
आँखे बंद करने से डर हमें अब लगता है ....
खुली आँखों में ये इतना डराती क्यूँ है ....

दिन तो कट जाते हैं दुनियादारी में ....
शाम रंगीन बना लेता हूँ मैं यारी में ....
जो रात करवट में बिताना चाहूँ ....
बेशबब प्यार से पलकों को सहलाती क्यूँ है ....

कितने मजबूर हैं हम खुद के ही लिए ....
जो हमने पाया है वो न चाहा कभी अपने लिए ....
एसा क्यूँ लगता है की हमें तरसा कर के ....
ज़िन्दगी औरों के प्यास बुझाती क्यूँ है ....


 

Monday, May 20, 2013

देखिये ये हिंदी है !!





दोस्तों आज मैं मज़ाक के मूड में नहीं ... आज मैं वाकई दुखी हूँ की मेरा जन्म भारत में क्यूँ हुआ । और जो चलिए हो भी गया तो बिहार जैसे हिंदी भाषा - भाषी प्रदेश ही मिला था मुझे जन्म लेने के लिए । कहीं दक्षिण भारत में होता तो अपने क्षेत्रीय भाषा के साथ साथ अंग्रेजी से भी मेरा उतना ही भावनात्मक लगाव होता और भारत में अपने ही लोगों के दोगलेपन की शिकार हिंदी के मौत के मुंह में जाते हुए देखने में दुःख नहीं होता । अपने इस अभागेपन पर दुःख से ज्यादा रोष होता है । सिर्फ 12 साल की पूरी उम्र जीने वाला घर का कुकुर अगर बीमार हो जाये तो उसके लिए आज भी हम अपना पूरा जोर लगा देते हैं की वो बच जाये और बांकी के दो चार साल और जी ले हमारे साथ । लेकिन पता नहीं हिंदी ने हमारे साथ क्या दुर्व्यब्हार किया भूत में कि वर्तमान में उसके साथ बलात्कार जैसी घटनाओं के बाद भी हमारी संवेदनाएं नहीं जगती उसके लिए । छोटे शहरों और कम शिक्षितों की तो बात छोडिये, मेट्रो में रहने वाले विशिष्ठों और विशेष शिक्षितों का भी कभी ध्यान नहीं जाता इस पर । आज जहां भारतवर्ष में एक बलात्कार की घटना से संवेदित समाज की मुहीम से कुछ ही दिनों में संविधान की धाराओं में संशोधन करवा देता है । वहाँ हिंदी के साथ हर मोड़, चौराहे, दफ्तर, स्कूल और संस्थानों में हो रही अभद्रदता कैसे आराम से पचा पा रहा है ? हिंदी नाम की इस औरत के एक एक कपडे रोज़ और हर प्रहर अग्रेज़ी बोलने और समझने वाले हिंदी हांथों से उतारे जा रहें हैं और कोई कुछ बोल तक नहीं पा रहा ? क्यूँ ? क्या कारण है ?
बहुत सोचने के बाद भी मैं कोई ठोस उत्तर नहीं ढूंढ पा रहा था ... काफी दिनों तक सोच नहीं पाया की आखिर हिंदी के साथ हमारा ऐसा विलगाव क्यूँ हुआ ? 
फिर मैंने पिछले कई दिनों से लगातार इस प्रश्न को अलग अलग वर्गों में रखना शुरू किया और सवालों से संतुष्ट होने की कोशिश करने लगा ।
सबसे पहले मैंने इसे हिंदी और हिंदी संस्कृति से लगाव रखने वाले कुछ मित्रों के सामने रखा ... सवाल रखने की देर थी भड़ास फूट पड़ी ...
" ये सब आजादी के समय अंग्रेजों की साजिश और हमारे तत्काल के देश के कर्णधारों की गलती है ... अगर उसी वक़्त सारी शिक्षा और काम काज को हिंदी में कराना जरूरी बना दिया होता तो आज हिंदी की ये दशा न होती ... क्या जिन देशों ने अपने मौलिक भाषाओं को पकड़ कर रखा उनका विकास नहीं हुआ ? जापान और जर्मनी को देख लीजिये ! "
सवाल जायज था लेकिन, कारण उतने ठोस नहीं ... सो मैं बहुत ज्यादा संतुष्ट नहीं हुआ ।
मेरा अगला पड़ाव था हमारे समाज में प्रतिष्ठित पत्रकार बन्धुओं का दरवाज़ा ... पत्रकार बंधुओं ने बड़े ही शालीन और मजबूर भाव से हिंदी की दुर्दशा पर चर्चा की ...
" भई देखिये हिंदी का देशव्यापी इस्तेमाल व्यबहारिक रूप में संभव कहाँ है ... पूरा दक्षिण हिंदी को अपनाने के लिए तैयार नहीं है ... बल्कि क्षेत्रीय भाषा के अलावा अंग्रेजों के समय से चली आ रही अंग्रेजी के साथ वो अब ज्यादा सहज हैं ... पूरे देश में सरकारी काम काज ज्यादातर अंग्रेजी में हो रहे हैं ... अब ऐसे में एकदम से तो हिंदी नहीं थोपा जा सकता न ! ... जैसे जैसे कान्वेंट कल्चर बढ़ रहा है नयी पीढ़ी अंग्रेजी के साथ ज्यादा आसानी से आगे बढ़ पा रही है ... तो हिंदी का ह्रास तो होगा ही ! "
जब मैंने कहा कि आपको नहीं महसूस होता की अपने देश की इस मौलिक भाषा और संस्कृति को बचाना चाहिए, ताकि हमारी अपनी पहचान बच सके ... जिसकी कद्र गाहे बगाहे पूरी दुनिया करती है ? और इसमें सबसे ज़िम्मेदार आप पत्रकारों को होने की जरूरत है ... तो जबाब मज़ेदार था ...
" देखिये सबसे पहले तो आप समझ लीजिये कि हिंदी की इस दुर्गति के ज़िम्मेदार हम नहीं हैं ... हम तो अपना काम कर ही रहें हैं न ... अब अगर पाठक ही नहीं हैं तो हिंदी के लेखक किसके लिए लिखेंगे ? ... हम लोगों को ज़बरदस्ती हिंदी घोल के पिला तो सकते नहीं है !! "
मैंने कहा बंधू ये कैसी व्यथा है ... जिस देश में तीन चौथाई से ज्यादा आबादी हिंदी बोल और समझ लेती है ... जो भाषा विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है ... उसके पाठक नहीं मिल रहे ? ... जबाब था ...
" भई शास्त्री जी बात को समझिये ... ये वो आंकड़े हैं जो सिर्फ बोलचाल में हिंदी का इस्तेमाल करते हैं वो भी आधा अधुरा ... जब इन्हें किताब खरीदनी होती है तो " गोदान " का भी अंग्रेजी तर्जुमा ढूंढते हैं ... भाई अंग्रेजी अब जीवन जीने की मजबूरी है ... हमारा घर बोलचाल की हिंदी से नहीं चलता, खरीदी गयी हिंदी पत्र - पत्रिकाओं से चलता है ... पिछले दस - बारह साल से विदेशी संस्थानों के आने और अंग्रेजी के विस्तार ने हमें थोड़ी राहत दी है ... अंग्रेजी समाचार माध्यमों के गुच्छे में हिंदी के एक आध वेबसाइट या पत्रिका ने अब हमारी हैसियत थोड़ी बदली है  ... अब पत्रकार झोला छाप और चप्पल चट्काऊ वाले इमेज से बाहर आ रहा है ... और आप हिंदी का रोना लिए बैठे हैं ... अरे इतने हिंदी चैनल हैं, वेबसाइट हैं, मासिक और पाक्षिक पत्रिकाएं हैं ... और कितना विकास चाहते हैं हिंदी का आप ? और हिंदी का साहित्यिक स्वरुप भी बचा रहे इसके लिए भी हम प्रयासरत हैं समय - समय पर कवि सम्मलेन और विचार गोष्ठियों की ख़बरें भी छापते हैं हम ... अब बस करें आप ... बार बार हिंदी की दुर्गति दिखाकर मुझे पथभ्रष्ट न करो यार ... घर परिवार चल रहा मज़े में दुःख तो मुझे भी है ...  एक बार बच्चे सेट हो जाएँ फिर लिखूंगा और करूँगा हिंदी के लिए आन्दोलन "             
जबाब ने अब अगला सवाल तो नहीं दागने दिया ... हाँ एक सूत्र दिया अंग्रेजी के प्रति लगाव जानने के कारण का ... वो सूत्र था की आज के समय में लोग इक्षा से कम और मजबूरी से ज्यादा अंग्रेजियत को अपना रहें हैं ... खासकर पिछली पीढ़ी के लोग ... लेकिन आज की पीढ़ी तो पल बढ़ रही है अंग्रेजी में फिर उसकी काहे की मजबूरी ? मैंने खुद के मगज पर जोर डालने बेहतर सीधे उन्ही से बात करना ठीक समझा ... और अपना राटा रटाया सवाल दाग दिया ... जबाब आया ...
" मिस्टर शास्त्री हिंदी और हिंदी संस्कृति अब पुरानी बात हो गयी है ... It was basically a conservative culture, which always created obstacle in our global competence ... अब देखिये जब से हमने कान्वेंट कल्चर को अपनाया है The whole glob is in our reach ... Now we are trying to tune with that open culture who have very good civic sense and environment ... हिंदी मानसिकता का असर देख लीजिये, कैसे यहाँ रेप होते हैं, कानून लचर है और तो और यहाँ आप खुल के जी नहीं सकते !!
मैंने कहा ... यार ये तो कोई बात नहीं हुयी ... जिस कल्चर का तुम इनता बखान कर रहे हो, वर्षों से उसी कल्चर में रह रहे लोग उस से त्रस्त हैं ... वहाँ एकाकीपन है, भयानक मानसिक दबाब है, कभी कभी तो लोग अपने परिचय को मोहताज़ हैं ... सोसाइटी नाम की कोई चीज़ नहीं, लोग गली मोहल्लों वाले तक से मतलब नहीं रखते ... और जिस विकास की तुम बात कर रहे हो उसके लिए अपनी मौलिक भाषा को छोड़ना कोई जरूरी सिध्ध नियम नहीं है ... चाहे तो चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी को देख लो ... चीन का प्रधान मंत्री जो अंग्रेजी का अच्छा खासा जानकार है वो भी हिंदुस्तान में आकर अंग्रेजी नहीं बल्कि अपनी भाषा में भाषण देता है ... इससे अपने मौलिक भाषा के प्रति एक आत्मीयता बनी रहती है ... और जहां तक रेप और कानून की बात है तो दोस्त क्या अमेरिका और इंग्लैंड में रेप नहीं होते ? ... रिकॉर्ड के हिसाब से 2010 में  अमेरिका में 84764 और इंलैंड के एक इलाके  में 15934 केस पुलिस में दर्ज किये गए ... ऐसे  में इन बातों को आधार मान अपनी मौलिक संस्कृति को धता बताना किस हद तक ठीक है ? 
वो झल्लाते हुए हुए बोला  " लुक मिस्टर शास्त्री ... I cant believe on your data ... There is no need of rape ! ... वो सेक्स फ्री देश हैं ... वहाँ इसकी क्या जरूरत ? ... फिर भी अगर ऐसा है तो होगा ... हिंदी ने हमें दिया क्या सिर्फ गरीबी और बन्धनों के ? ... आज अंग्रेजी और अंग्रेजियत को अपनाकर हज़ारों लोग विदेशों में अच्छा खासा पैसा कमा रहें हैं ... They are happy with their life ... आप विदेश को तो छोडो, अगर आप कान्वेंट के पढ़े लिखे हो तो 12 वीं करते ही आप 15 हज़ार कमाना शुरू कर सकते हो, किसी भी कॉलसेंटर में और ... U can be financially independent ! "
मैंने कहा ... की दोस्त इस तरह से पैसा तो अंग्रेजी को अलग से सीख कर भी कमाया जा सकता है, जैसे हम फ्रेंच, चाइनीज, जर्मन और भाषा सीख कर काम करते हैं ... इसके लिए अपने मौलिक भाषा की बलि चढ़ा दी जाये ये किस हद तक जाएज है ... और एक बेहतर संस्कृति का त्याग भी उन लोगों के लिए जो आज भी तुम्हें अपने संस्कृति का हिस्सा नहीं मानते ... दशकों से वहां रच बस गए हम जैसे लोगों के साथ आज भी भेदभाव करते हैं ... और क्यूँ न करें वो समझ गए हैं की ये अपनी बुनियाद छोड़कर आये लोग है और मजबूर हैं ... हम चाहे कुछ भी व्यबहार करें इनके साथ ये बर्दाश्त करेंगे चुपचाप ... इनके पास कोई चारा नहीं !! 
इस बार साहेब थोडा ठिठके ... और बोले  " देखिये अगर आप किसी और कल्चर में जा रहें हैं तो आपको वहाँ के लोग और उस कल्चर को समझ के ही जाना होगा ... मैं मानता हूँ की इस तरह की घटनाएं आये दिन होती है वहाँ ... लेकिन मैं ये नहीं मान सकता की गलती अंग्रेजी समाज की है ... वो हमसे बहुत आगे हैं और ज्यादा नैतिक हैं ... जहां कहीं भी ऐसी घटना होती है उसमें जरूर हमारे लोगों की गतली रही होगी ... और मान ले की नहीं भी रही होगी तो भी क्या फर्क पड़ता ... अगर कोई समाज और भाषा आपको इतना सब कुछ दे रहा है तो  थोडा बहुत आप भी बर्दास्त करें न ! ... आखिर पैसा तो है न ? 
मैंने अचरज से पूछा  ... मतलब सिर्फ पैसा के लिए अपना मान मर्दन कराने में कोई गलत नहीं ? ... जिस भाषा को आप सिर्फ सीख कर वो सब हासिल कर सकते हैं और अपने मौलिक भाषा और संस्कृति की बुनियाद पर खड़े रह कर पूरे दुनिया से जुड़े रह सकते हैं ... इस व्यवस्था में क्या दिक्कत है ?
जबाब था  ... " देखिये चाहे आप अब मुझे लाख समझा लें लेकिन ये सच्चाई है की अब हिंदुस्तान में बिना हिंदी तो एक बार को जिया भी जा सकता है ... बिना अंग्रेजी गुजारा नहीं है ... और रही बात हिंदी के ख़त्म होने की ... तो इसे रोकने की ज़िम्मेदारी मेरी नहीं है ... मैं न तो हिंदी में पढ़ा लिखा और न ही मेरा हिंदी से कोई लगाव है ... मेरे आस पास हिंदी और उससे जुड़े लोगों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है ... सो मैं अंग्रेजी के साथ खुश हूँ ।
मुझे नहीं लगा की अब इसके बाद उनसे बात करने की जरूरत है ... लेकिन मैं खुद को संतुष्ट नहीं कर पाया ... पहले तो बात समझ में आती थी हमारे पास विकसित शैक्षणिक संस्थान नहीं थे, उनके शहरों के जैसे शहर नहीं थे और उनके देशो की तरह के व्यावसायिक अवसर नहीं थे ... लेकिन  आज तो कम से कम इतनी भी दिक्कत नहीं । जहां इतने सालों में विकास के साथ साथ हमें उस गुलामी से धीरे धीरे बाहर आना चाहिए था ... उल्टा हम और उनकी तरफ वफादारी बढ़ाते जा रहें हैं । धीरे धीरे मैं ये तो समझ गया था की वाकई अंग्रेजियत अब सिर्फ एक लुभाव नहीं बल्कि एक मजबूरी बन गयी ... लेकिन किस किस्म की मजबूरी ? ... इसे परिभाषित कैसे किया जाये ताकि सीधे सीधे समझ में आ जाये । 

पेशोपेश में और उनुत्त्रित मैं इस विषय से खुद को हटाने के लिए अपने सेल्फ में उन किताबों पर नज़र दौड़ाने लगा जिनके कुछ पन्ने बच गये हों पढने के लिए । तभी नज़र पड़ी एक किताब पर ... Fifty Shades Of Grey ... किताब को देखते ही लगा जैसे मेरे सवालों का जबाब मिल गया !! आइये बताता हूँ कैसे ?
दोस्तों इस किताब में नायक को Dominant और नायिका को Submissive दर्शाया गया है । नायिका, नायक के व्यक्तित्व और सामर्थ से इस कदर प्रभावित हो जाती है की मात्र कुछ दिनों के लिए भी उसकी submissive बनने की शर्त मान लेती है ... ये जानते हुए की अगर इन दिनों के उसके शारीरिक और मानसिक आचरण नायक को संतुष्ट नहीं कर सके तो उसे वापस जाना होगा । वो इस तरह के परिवेश से नहीं है और न ही इस परिवेश का उसे पता है ... फिर भी वो नायक को संतुष्ट करने के लिए उसके हर प्रयोग में साथ देती है । उसके साथ नायक ने कोई जबरदस्ती नहीं की है ... बल्कि सभी पीडाओं और यातनाओं का आभास पहले करा दिया होता है ... फिर भी वो राज़ी हो जाती है । नायक के साथ होने के समय हर पीड़ा उसे छलनी करता है लेकिन पूछे जाने पर वो कभी शिकायत नहीं करती ... उल्टा नायक को "सर" कहके संबोधित करना नहीं भूलती । क्यूंकि वो जानती है उसकी एक शिकायत इस कॉन्ट्रैक्ट को समय से पहले तोड़ देगा । जब जब वो नायक से दूर होती है तब तब उसे घृणा भी होती है इस रिश्ते से लेकिन नायक से प्रभावित नायिका दुबारा बुलाने पर पुनः सहर्ष अपना मान मर्दन को तैयार हो जाती है । 

मित्रों यही है वो जबाब जो मुझे मिला ... अंग्रेजियत का प्रभाव हमारे मानस पटल पर ऐसा छाया है की हम उसके Submissive बनने को सहर्ष तैयार हैं । अब हम उसकी दया पर हैं की किस हद तक हमारे मर्यादा का हनन करे । अगर कम से कम किया तो शान से यार दोस्तों में उठ बैठ लेंगे और बेहतर सामर्थ वालों में गिने जायेंगे ... और अगर ज्यादा कर दिया की चीख निकल गयी और लोगों तक आवाज़ पहुँच गयी तो भी कोई बात नहीं ... हम अपने नायक से कैसे शिकायत कर सकते हैं ? वो तो प्रभावशाली है हमें निकाल देगा ... चुपचाप बर्दाश्त करेंगे और "सर" संबोधन लगाना नहीं भूलेंगे । मतलब अंग्रेजी और अंग्रेजियत को हमने Dominant और हिंदी और हिंदी संस्कृति को Submissive बना दिया है ।
कई लोगों को ये लगेगा की 93% हिंदी या क्षेत्रीय भाषा भाषी और मात्र 7% अंग्रेजी भाषा भाषी भारतियों में अगर ये सभी अंग्रेजियत को स्वीकार कर भी रहें हैं तो क्या फर्क पड़ेगा ? ... तो ये न भूलिए की ये वही 7% लोग हैं जिन्हें पढ़ा लिखा समझ कर भविष्य निर्माण की ज़िम्मेदारी इन्ही की कन्धों पर दिया जायेगा ... फिर ये लोग अपने पीछे के लोगों को कहाँ पहुंचाएंगे इसका अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं ।

मेरे हिसाब से इस परिश्थिति में दो ही रास्ते हैं ...

एक तो वो लोग जिन्हें हिंदी और हिंदी संस्कृति में विस्वास है, मिलकर एक देश व्यापी आन्दोलन चलाये और सरकार एवं समाज को मजबूर कर दें की बगैर हिंदी अब देश नहीं चल सकता ।ये पागलपन नहीं जरूरत है आपकी ... जिस देश में बड़े पैमाने पर सरकारी पढाई लिखाई हिंदी या क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से हो रहा हो ... वहाँ ज्यादातर सरकारी और गैरसरकारी दफ्तरों में अंग्रेजी में काम काज का चलन क्यूँ ? कैसे तालमेल बैठायेगा उन स्कूल में पढ़ा एक व्यक्ति अपने काम काज से ? पहली कक्षा से 12 वीं तक जिसने हर विषय की बारीकियां और हर शब्द के हिज्जे हिंदी में आत्मसात किया हो वो एकाएक धाराप्रवाह अंग्रेजी की लिखाई और बोलाई कैसे झेल पायेगा ?

या दूसरा रास्ता है की हिंदी का मान मर्दन रोक कर उसे मौत दे दिया जाये ... सरेआम खुले में इसके साथ हो रहे कुकृत्य से इसको और छलनी होते देखना अब बर्दाश्त नहीं । अगर वाकई हमारे रगों में दौड़ रहा हिंदी संस्कृति का खून इतना गन्दा और मजबूर हो गया है की हम अब उसके साथ हो रहे घिनौनापन नहीं रोक पा रहें हैं, तो आइये एक बार हिम्मत करके इसे दफ़न कर देते हैं ... अंग्रेजी को राजभाषा घोषित करते हैं और हिन्दुस्तान के हर गली मोहल्ले में अंग्रेजी को व्यवहारिक बनाते हैं । कम से कम हमें किसी मौलिक भाषा के सामूहिक बलात्कार का मूक दर्शक तो नहीं बनना होगा हमें भविष्य में !!!

फैसला हमें करना है ...

Thursday, May 9, 2013

प्रेम बनाम अहंकार



मैंने सुना है एक बहुत पुराना वृक्ष था, आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे ।  उसपर फूल आते थे तो दूर दूर से पक्षी सुगंध लेने आते, उसपर फल लगते थे तो तितलियाँ उड़ती ।उसकी छाया, उसके वो फैले हाथ, हवाओं में खड़ा उसका वो विराट रूप बड़ा ही सुन्दर दीखता था । एक छोटा बच्चा उसकी छाया में रोज़ खेलने आता था, उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्चे से प्रेम हो गया । बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है अगर बड़ों को पता न हो की हम बड़े हैं । वृक्ष को कोई पता नहीं था की मैं बड़ा हूँ ... ये पता सिर्फ आदमी को होता है । इसलिए उसका प्रेम हो गया । अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से प्रेम करने की कोशिश करता है । अहंकार हमेशा अपनों से बड़ो से सम्बन्ध जोड़ता है । प्रेम के लिए कोई छोटा या बड़ा नहीं जो आ जाये उसी से सम्बन्ध जुड़ जाता है । वो एक छोटा सा बच्चा खेलने आता था वृक्ष के पास, उस वृक्ष का उस से प्रेम हो गया । लेकिन वृक्ष की शाखाएं ऊंची थी, बच्चा छोटा था, तो वृक्ष अपनी शाखाएं नीचे झुकाता, ताकि वो फल तोड़ सके - फूल तोड़ सके । 
प्रेम हमेशा झुकने को राज़ी है ... अहंकार कभी भी झुकने को राज़ी नहीं । अहंकार के पास जायेंगे तो उसके हाथ और ऊपर उठ जायेंगे ताकि कोई उसे छू न सके । क्यूंकि जिसे छू लिया जाये वो छोटा आदमी है ... जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्ली में हो वो आदमी बड़ा आदमी है ! 
वृक्ष हमेशा अपनी शाखाएँ नीचे झुकाती जब बच्चा उसके पास खेलने आता, और जब बच्चा उसके फूल तोड़ लेता तो वृक्ष बड़ा खुश होता । उसके प्राण आनंद से भर जाते । 
प्रेम जब भी कुछ दे पाता है तब खुश हो जाता है ... अहंकार जब कुछ ले पाता है तभी खुश होता है ! 
फिर वो बच्चा बड़ा होने लगा, वो कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बना के पहनता और जंगल का सम्राट हो जाता । प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसते हैं वही सम्राट हो जाता है । और जहाँ भी अहंकार गिरता है वही सब अंधकार हो जाता है, आदमी दीन और दरिद्र हो जाता है । वो लड़का फूलों का ताज पहनता और नाचता, वृक्ष ये देखकर बहुत आनंदित होता, हवाएं सनसनाती और वो गीत गाता । फिर लड़का और भी बड़ा हुआ, वो वृक्ष के ऊपर भी चढने लगा, उसकी शाखाओं से झूलने भी लगा । वो उसकी शाखाओं पर विश्राम भी करता और वृक्ष बहुत आनंदित होता । 
प्रेम आनंदित होता है जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है ... अहंकार आनंदित होता है जब किसी की छाया छीन लेता है ! 
अब धीरे - धीरे लड़का बड़ा होता गया जैसे - जैसे दिन बीतते गए । जब लड़का बड़ा हुआ तो उसे अब दुसरे काम भी आ गए । महत्वकांक्षाएं आ गयीं, उसे परीक्षाएं पास करनी थी, उसे मित्रों को जीतना था । फिर वो कभी कभी आता कभी न भी आता ... लेकिन वृक्ष रोज़ उसकी प्रतीक्षा करता की वो आये .. आये .. उसके सारे प्राण पुकारते की आओ .. आओ ...
प्रेम निरंतर प्रतीक्षा करता है की आओ .. आओ ... प्रेम एक प्रतीक्षा है ... एक awaiting है ! ... लेकिन वो कभी आता कभी नहीं आता तो वृक्ष उदास हो जाता । प्रेम की एक ही उदासी है ... जब वो बाँट नहीं पाता तो उदास हो जाता है । जब वो दे नहीं पाता तो उदास हो जाता है । और पेम की एक ही धन्यता है की जब वो बाँट देता है, दे देता है और लुटा देता है तो वो आनंदित हो जाता है । 
फिर वो लड़का और बड़ा होता चला गया वृक्ष के पास आने के दिन उतने कम होते चले गए । जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है, महत्वकांक्षा के जगत में प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है । 
उस लड़के के महत्वकांक्षा बढ़ रही थी ... कहाँ वृक्ष .. कहाँ जाना ! 
फिर एक दिन किसी कारण वो वहाँ से निकल रहा था तो वृक्ष ने पुकारा .. कहा .. सुनो !! 
हवाओं में उसकी आवाज़ गूंजी की ... सुनो मैं तुम्हारे लिए प्रतीक्षा करता हूँ .. राह देखता हूँ .. बाट जोहता हूँ ! 
उस लड़के ने कहा की .. क्या है तुम्हारे पास जो मैं अब आऊँ ? .. मुझे रुपये चाहिए !! 
हमेशा अहंकार पूछता है की क्या है तुम्हारे पास जो मैं आऊँ ! अहंकार मांगता है की कुछ हो तो मैं आऊँ ! न कुछ हो आने की कोई जरूरत नहीं .. अहंकार एक प्रयोजन है एक purpose है । प्रयोजन पूरा होता हो तो मैं आऊँ ! ... अगर कोई प्रयोजन नहीं है तो आने की जरूरत क्या है ? और प्रेम निष्प्रयोजन है, प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं । प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है, वो purposeless है । 
वृक्ष तो चौंक गया .. उसने कहा .. की तुम तभी आओगे जब मैं तुम्हें दे सकूं ? मैं तुम्हें सब दे सकता हूँ .. क्यूंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता । जो रोक ले वो प्रेम नहीं है ... अहंकार रोकता है ... प्रेम तो बेशर्त दे देता है । लेकिन रुपये मेरे पास नहीं है .. ये रुपये तो आदमी की ईजाद है .. वृक्षों ने तो ये बीमारी नहीं पाली है । उस वृक्ष ने कहा की इसलिए तो हम इतने आनंदित होते हैं .. इतने फूल खिलते हैं .. इतने फल लगते हैं .. इतनी बड़ी छाया होती है । हम इतना फैलते हैं आकाश में, हम इतने गीत गाते हैं और पक्षी हम पर आते हैं और संगीत का कलरव करते हैं । क्यूंकि हमारे पास रुपये नहीं हैं ... जिस दिन हमारे पास भी रुपये हो जायेंगे हम भी आदमी जैसे दीन - हीन मंदिरों में बैठकर सुनेंगे की शांति कैसे पायी जाये ... प्रेम कैसे पाया जाये ? नहीं हैं हमारे पास रुपये नहीं हैं !!  
तो लड़के ने कहा .. तो फिर मैं क्या आऊँ तुम्हारे पास .. जहाँ रुपये हैं वहां जाना पड़ेगा .. मुझे रुपये की जरूरत है । अहंकार रूपया मांगता है क्यूंकि रूपया शक्ति है .. अहंकार शक्ति मांगता है । उस वृक्ष ने गहनता से सोचा तो उसे ख्याल आया और कहा ... 
" तो  तुम एक काम करो .. तुम मेरे सारे फलों को तोड़कर ले जाओ .. और उसे बेच दो तो शायद रुपये मिल जाएँ "
और उस लड़के को भी ख्याल आया वो चढ़ा और सरे फल तोड़ डाले । कच्चे भी गिरा डाले .. शाखाएं भी टूटी .. पत्ते भी टूटे । लेकिन वृक्ष बहुत खुश हुआ .. बहुत आनंदित भी हुआ । टूट के भी प्रेम आनंदित होता है, अहंकार पा के भी आनंदित नहीं होता .. पा के भी दुखी ही रहता है । और उस लड़के ने तो धन्यवाद भी नहीं दिया पीछे लौट कर । लेकिन उस वृक्ष को तो पता भी नहीं चला, उसे तो धन्यवाद मिल गया इसी में कि उसने उसके प्रेम को स्वीकार किया .. उसके फल को तोड़ा और उसे बाज़ार में बेचा ।  
अब फिर लड़का कई दिनों तक नहीं आया । उसके पास रुपये थे .. वो रुपये से रूपया कमाने की जुगत में लग गया .. वो वृक्ष को भूल गया । वर्ष बीत गए और वृक्ष उदास है और उसके प्राणों में रस बह रहा है की वो आये उसका प्रेमी और ले जाये । जैसे किसी माँ के स्तन में दूध भरा हो और उसका बेटा खो गया हो और उसके सारे प्राण तड़प रहें हैं की उसका बेटा कहाँ है जिसे वो खोजे जो उसे हल्का कर दे नीर्भार कर दे । ऐसे उस वृक्ष के प्राण पीड़ित होने लगे की वो             आये .. आये .. आये उसकी साड़ी आवाज़ यही गूंजने लगी की .. आओ । बहुत दिनों बाद वो आया वो लड़का तो प्रौढ़ हो गया था। 
वृक्ष ने उससे कहा " आओ मेरे पास मेरे आलिंगन में आओ .. "
उसने कहा " छोडो ये बकवास ये बचपन की बातें हैं ! "
अहंकार प्रेम को पागलपन समझता है .. बचपन की बातें समझता है । 
उस वृक्ष ने कहा " आओ मेरे पास .. मेरे डालियों पर झूलो "
उसने कहा " छोडो ये फिजूल की बातें .. मुझे एक मकान बनाना है .. मकान दे सकते हो तुम ? "
वृक्ष ने कहा .. मकान ! .. हम तो बिना मकान के ही रहते हैं .. मकान में तो सिर्फ आदमी रहता है .. दुनियां में और कोई मकान में नहीं रहता .. सिर्फ आदमी रहता है .. सो देखते हो आदमी की हालत .. मकान में रहने वाले आदमी की हालत .. उसके मकान जितने बड़े होते जाते हैं आदमी उतना छोटा होता चला जाता है .. हम तो बिना मकान के रहते हैं .. लेकिन एक बात हो सकती है की अगर तुम मेरी शाखाओं को काटकर ले जाओ तो शायद तुम अपना मकान बना लो !
और वो प्रौढ़ कुल्हारी लेकर आ गया और उसने उस वृक्ष की शाखाएं काट डाली, वृक्ष एक ठूँठ रह गया नंगा लेकिन वृक्ष बहुत आनंदित था । प्रेम सदा आनंदित रहता है चाहे उसके अंग भी कट जायें .. लेकिन कोई ले जाये .. कोई बाँट ले .. कोई संम्मिलित हो जाये साझीदार हो जाये । और लड़के ने तो पीछे मुद कर भी नहीं देखा और उसने मकान बना लिया । 
और वक़्त गुजरता गया वो ठूंठ राह देखता वो चिल्लाना चाहता, लेकिन अब उसके पास पत्ते भी नहीं थे, शाखाएं भी नहीं थी । हवाएं आती और वो बोल भी नहीं पाता .. बुला भी न पाता । लेकिन उसके प्राणों में तो एक ही गूँज थी आओ - आओ । और जब बहुत दिन हो गए थे तब वो बच्चा जो अब बूढा हो गया था, पास से निकल रहा था वृक्ष के पास आ के खड़ा हो गया । तो वृक्ष ने पूछा .. क्या कर सकता हूँ मैं और तुम्हारे लिए ? ... तुम बहुत दिनों बाद आये !  
उसने कहा .. तुम क्या कर सकोगे ! .. मुझे दूर देश जाना है धन कमाने के लिए .. मुझे एक नाव की जरूरत है !
वृक्ष ने बिना सोचे कहा .. तुम मुझे और काट लो .. मेरे इस जड़ से नाव बन जाएगी .. और मैं बहुत धन्य होऊंगा कि मैं तुम्हारी नाव बन सकूं, मैं तुम्हें दूर देश ले जा सकूं । लेकिन तुम जल्दी लौट आना और सकुशल लौट आना .. मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा । 
लड़के ने आरे से उसे और काट डाला, अब वो पेड़ एक बहुत छोटा सा ठूंठ रह गया । और वो दूर यात्रा पर निकल गया । और वो ठूंठ भी प्रतीक्षा करता रहा कि वो आये - आये, लेकिन अब उसके पास कुछ नहीं देने को । सो शायद वो अब नहीं आएगा । क्यूंकि अहंकार वहीँ आता जहां कुछ पाने को है .. अहंकार वहाँ नहीं जाता जहां कुछ पाने को नहीं है । 
मैं उस ठूंठ के पास एक रात का मेहमान हुआ था तो वो ठूंठ मुझसे बोला .. मेरा मित्र अब तक नहीं आया .. मुझे बहुत अधिक पीड़ा होती है कि कहीं नाव डूब न गयी हो .. कहीं वो भटक न गया हो .. कहीं किसी दुसरे किनारे पर विदेश में भूल न गया हो .. कहीं वो डूब न गया हो .. कहीं वो समाप्त न हो गया हो । एक खबर भर कोई मुझे ला दे, अब मैं मरने के करीब हूँ .. एक खबर भर कोई ला दे कि वो सकुशल है .. फिर कोई बात नहीं .. फिर सब ठीक है .. अब तो मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है, सो अगर मैं बुलाऊँ भी तो शायद वो नहीं आएगा .. क्यूंकि वो सिर्फ लेने की ही भाषा समझता है । 
अहंकार लेने की भाषा समझता है ... प्रेम देने की भाषा है !  
इससे ज्यादा इस कहानी में सुनने और सुनाने के लिए कुछ नहीं है ... 

खुर्पेंचूं ने जुगत लड़ा के, दिया कहानी सुनाये 
समझ समझ के फेर में, कईयों को समझ न आये 
बात खुली और सच्ची है, अब किस किसको समझाये 
बालक वृक्ष में जो मन सोहे, वो खुद को वहीँ बिठाये ..   

कहानी ओशो वाणी का अंश है ...