Blogvani.com आपमरूदा....: August 2010

Sunday, August 15, 2010

लोर्ड मैकाले महान थे या हम बेवकूफ ....

LORD MACAULAY ADDRESS TO THE BRITISH PARLIAMENT, 2 FEBRUARY, 1835
I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such calibre, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native culture and they will become what we want them, a truly dominated nation.

ऊपर लिखे वाक्यों को पढने के बाद हम में से कईयों को तो सरदर्द हो जाता है ... क्या बेबकूफी है भाई ... 175 साल पहले कही गयी बात को आज सुनाने का क्या मतलब ... वो समय और था, हमारा जीवन स्तर और था, हम शिक्षित नहीं थे तो लोर्ड मैकाले ने ये बात कह दी थी .... आज उसे याद करके क्या फायेदा ... 
बात ठीक भी है भाई ... अब अंग्रेज ही नहीं रहे तो उनकी कही गयी बातों का क्या ? अब ये देश हमारा है जैसे चाहेंगे वैसे चलाएंगे ... 
मेरे दोस्तों अगर वाकई ऐसे ही विचार मन में उठ रहें हो तो मेरी विनती है की एक बार फिर दिमाग के सारे दरवाजे खोल कर ऊपर की लाईनों से गुजर जाएँ ... मुझे यकीन है की इस पूरे कथन का मर्म आप समझ तो लेंगे ही ... लेकिन बिना अपना दृष्टिकोण घुसेड़े मानेंगे नहीं ... ये आपका नहीं हम पढ़े लिखे कौम की खासियत है अगर बात सीधे सीधे मान लें तो फिर पढ़ा लिखा होने का क्या फ़ायेदा .... खैर छोडिये इस बेहेस को बाद में करेंगे कभी ... 
मैं आज अपनी ये बात सिर्फ अपने उन साथियों तक पहुँचाना चाहता हूँ जो सही मायेने में शिक्षित हैं, और उन्ही के कन्धों पर कहीं न कहीं आने वाले भारत के भविष्य निर्माण की ज़िम्मेदारी होगी ... प्रतक्ष्य रूप से हम आज़ाद आज से 63 साल पहले हो गए लेकिन आज भी हम अंग्रेजियत के ग़ुलाम हैं, या यूँ कहें की जाते जाते अंग्रेजों ने हमारी तरफ अपनी तड़क भड़क वाली सभ्यता की ऐसी मुमफली फेंकी जिसे हमने 14 अगस्त सन 1947 की रात से ही फोड़ फोड़ के खाना शुरू कर दिया ... और वो भी गर्व के साथ ... कहीं न कहीं ये इसी लुभावने सभ्यता का एक दबाब था हमारे मानसिकता पर जिसने हमें Tryst of Destiny को भी अंग्रेजी में सुनाने और सुनने के लिए तैयार कर दिया था .... वर्ना ऐसा नहीं था की नेहरु जी की हिंदी पर पकड़ कमजोर थी या फिर वहाँ बैठे लोगों को हिंदी सुनने से परहेज था  ... सवाल सिर्फ भाषा के इस्तेमाल का नहीं था, सवाल हिंदी के साथ भावनात्मक जुड़ाव का था, जो उसी समय से धीरे धीरे कमजोर होता जा रहा था और आज तो ये आलम है की अगर कोई शुध्ध हिंदी के दो चार वाक्य बोल दे तो हम उसे टेडी निगाह से देखने लगते हैं... कहीं ये मुझ पर व्यंग तो नहीं कर रहा .... कहने का मतलब शुध्ध हिंदी अब व्यंग की भाषा है और अच्छी अंग्रेजी आपके शिक्षित होने का सबूत ...
अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न कभी बुरा था और न ही रहेगा .... लेकिन समस्या तब खड़ी होने लगती है जब हम अंग्रेजियत के आदि होने लगते हैं .... और इसी कि नीव लोर्ड मैकाले ने आज से 175 साल पहले रख दी थी .... सुप्रीम काउन्सिल ऑफ़ इंडिया में अपने 1834 से 1838 तक सेवा काल में, मैकाले ने गवर्नर जेनेरल को विस्वास में लेकर अंग्रेजी को उच्च शिक्षा का मुख्य माध्यम बनवा डाला .... आज मैकाले ने जिस इमारत की नीव रखी थी वो हिन्दुस्तान में बुलंदियों को छू रहा है ... मैकाले की आत्मा अब संतुष्ट होगी की उसने जैसा सोचा था वैसा हो गया .... और हम हिन्दुस्तानियों के समझ पर चकित भी होगी की कैसे समझदार भारतीय हैं ... जिस मनसा को मैंने 175 साल पहले बिलकुल साफ़ साफ़ कह दिया था वो ये लोग आज तक नहीं समझे .....

तुम महान थे मैकाले ....  या हम वाकई बेवकूफ हैं ....