Blogvani.com आपमरूदा....: प्रेम बनाम अहंकार

Thursday, May 9, 2013

प्रेम बनाम अहंकार



मैंने सुना है एक बहुत पुराना वृक्ष था, आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे ।  उसपर फूल आते थे तो दूर दूर से पक्षी सुगंध लेने आते, उसपर फल लगते थे तो तितलियाँ उड़ती ।उसकी छाया, उसके वो फैले हाथ, हवाओं में खड़ा उसका वो विराट रूप बड़ा ही सुन्दर दीखता था । एक छोटा बच्चा उसकी छाया में रोज़ खेलने आता था, उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्चे से प्रेम हो गया । बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है अगर बड़ों को पता न हो की हम बड़े हैं । वृक्ष को कोई पता नहीं था की मैं बड़ा हूँ ... ये पता सिर्फ आदमी को होता है । इसलिए उसका प्रेम हो गया । अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से प्रेम करने की कोशिश करता है । अहंकार हमेशा अपनों से बड़ो से सम्बन्ध जोड़ता है । प्रेम के लिए कोई छोटा या बड़ा नहीं जो आ जाये उसी से सम्बन्ध जुड़ जाता है । वो एक छोटा सा बच्चा खेलने आता था वृक्ष के पास, उस वृक्ष का उस से प्रेम हो गया । लेकिन वृक्ष की शाखाएं ऊंची थी, बच्चा छोटा था, तो वृक्ष अपनी शाखाएं नीचे झुकाता, ताकि वो फल तोड़ सके - फूल तोड़ सके । 
प्रेम हमेशा झुकने को राज़ी है ... अहंकार कभी भी झुकने को राज़ी नहीं । अहंकार के पास जायेंगे तो उसके हाथ और ऊपर उठ जायेंगे ताकि कोई उसे छू न सके । क्यूंकि जिसे छू लिया जाये वो छोटा आदमी है ... जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्ली में हो वो आदमी बड़ा आदमी है ! 
वृक्ष हमेशा अपनी शाखाएँ नीचे झुकाती जब बच्चा उसके पास खेलने आता, और जब बच्चा उसके फूल तोड़ लेता तो वृक्ष बड़ा खुश होता । उसके प्राण आनंद से भर जाते । 
प्रेम जब भी कुछ दे पाता है तब खुश हो जाता है ... अहंकार जब कुछ ले पाता है तभी खुश होता है ! 
फिर वो बच्चा बड़ा होने लगा, वो कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बना के पहनता और जंगल का सम्राट हो जाता । प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसते हैं वही सम्राट हो जाता है । और जहाँ भी अहंकार गिरता है वही सब अंधकार हो जाता है, आदमी दीन और दरिद्र हो जाता है । वो लड़का फूलों का ताज पहनता और नाचता, वृक्ष ये देखकर बहुत आनंदित होता, हवाएं सनसनाती और वो गीत गाता । फिर लड़का और भी बड़ा हुआ, वो वृक्ष के ऊपर भी चढने लगा, उसकी शाखाओं से झूलने भी लगा । वो उसकी शाखाओं पर विश्राम भी करता और वृक्ष बहुत आनंदित होता । 
प्रेम आनंदित होता है जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है ... अहंकार आनंदित होता है जब किसी की छाया छीन लेता है ! 
अब धीरे - धीरे लड़का बड़ा होता गया जैसे - जैसे दिन बीतते गए । जब लड़का बड़ा हुआ तो उसे अब दुसरे काम भी आ गए । महत्वकांक्षाएं आ गयीं, उसे परीक्षाएं पास करनी थी, उसे मित्रों को जीतना था । फिर वो कभी कभी आता कभी न भी आता ... लेकिन वृक्ष रोज़ उसकी प्रतीक्षा करता की वो आये .. आये .. उसके सारे प्राण पुकारते की आओ .. आओ ...
प्रेम निरंतर प्रतीक्षा करता है की आओ .. आओ ... प्रेम एक प्रतीक्षा है ... एक awaiting है ! ... लेकिन वो कभी आता कभी नहीं आता तो वृक्ष उदास हो जाता । प्रेम की एक ही उदासी है ... जब वो बाँट नहीं पाता तो उदास हो जाता है । जब वो दे नहीं पाता तो उदास हो जाता है । और पेम की एक ही धन्यता है की जब वो बाँट देता है, दे देता है और लुटा देता है तो वो आनंदित हो जाता है । 
फिर वो लड़का और बड़ा होता चला गया वृक्ष के पास आने के दिन उतने कम होते चले गए । जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है, महत्वकांक्षा के जगत में प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है । 
उस लड़के के महत्वकांक्षा बढ़ रही थी ... कहाँ वृक्ष .. कहाँ जाना ! 
फिर एक दिन किसी कारण वो वहाँ से निकल रहा था तो वृक्ष ने पुकारा .. कहा .. सुनो !! 
हवाओं में उसकी आवाज़ गूंजी की ... सुनो मैं तुम्हारे लिए प्रतीक्षा करता हूँ .. राह देखता हूँ .. बाट जोहता हूँ ! 
उस लड़के ने कहा की .. क्या है तुम्हारे पास जो मैं अब आऊँ ? .. मुझे रुपये चाहिए !! 
हमेशा अहंकार पूछता है की क्या है तुम्हारे पास जो मैं आऊँ ! अहंकार मांगता है की कुछ हो तो मैं आऊँ ! न कुछ हो आने की कोई जरूरत नहीं .. अहंकार एक प्रयोजन है एक purpose है । प्रयोजन पूरा होता हो तो मैं आऊँ ! ... अगर कोई प्रयोजन नहीं है तो आने की जरूरत क्या है ? और प्रेम निष्प्रयोजन है, प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं । प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है, वो purposeless है । 
वृक्ष तो चौंक गया .. उसने कहा .. की तुम तभी आओगे जब मैं तुम्हें दे सकूं ? मैं तुम्हें सब दे सकता हूँ .. क्यूंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता । जो रोक ले वो प्रेम नहीं है ... अहंकार रोकता है ... प्रेम तो बेशर्त दे देता है । लेकिन रुपये मेरे पास नहीं है .. ये रुपये तो आदमी की ईजाद है .. वृक्षों ने तो ये बीमारी नहीं पाली है । उस वृक्ष ने कहा की इसलिए तो हम इतने आनंदित होते हैं .. इतने फूल खिलते हैं .. इतने फल लगते हैं .. इतनी बड़ी छाया होती है । हम इतना फैलते हैं आकाश में, हम इतने गीत गाते हैं और पक्षी हम पर आते हैं और संगीत का कलरव करते हैं । क्यूंकि हमारे पास रुपये नहीं हैं ... जिस दिन हमारे पास भी रुपये हो जायेंगे हम भी आदमी जैसे दीन - हीन मंदिरों में बैठकर सुनेंगे की शांति कैसे पायी जाये ... प्रेम कैसे पाया जाये ? नहीं हैं हमारे पास रुपये नहीं हैं !!  
तो लड़के ने कहा .. तो फिर मैं क्या आऊँ तुम्हारे पास .. जहाँ रुपये हैं वहां जाना पड़ेगा .. मुझे रुपये की जरूरत है । अहंकार रूपया मांगता है क्यूंकि रूपया शक्ति है .. अहंकार शक्ति मांगता है । उस वृक्ष ने गहनता से सोचा तो उसे ख्याल आया और कहा ... 
" तो  तुम एक काम करो .. तुम मेरे सारे फलों को तोड़कर ले जाओ .. और उसे बेच दो तो शायद रुपये मिल जाएँ "
और उस लड़के को भी ख्याल आया वो चढ़ा और सरे फल तोड़ डाले । कच्चे भी गिरा डाले .. शाखाएं भी टूटी .. पत्ते भी टूटे । लेकिन वृक्ष बहुत खुश हुआ .. बहुत आनंदित भी हुआ । टूट के भी प्रेम आनंदित होता है, अहंकार पा के भी आनंदित नहीं होता .. पा के भी दुखी ही रहता है । और उस लड़के ने तो धन्यवाद भी नहीं दिया पीछे लौट कर । लेकिन उस वृक्ष को तो पता भी नहीं चला, उसे तो धन्यवाद मिल गया इसी में कि उसने उसके प्रेम को स्वीकार किया .. उसके फल को तोड़ा और उसे बाज़ार में बेचा ।  
अब फिर लड़का कई दिनों तक नहीं आया । उसके पास रुपये थे .. वो रुपये से रूपया कमाने की जुगत में लग गया .. वो वृक्ष को भूल गया । वर्ष बीत गए और वृक्ष उदास है और उसके प्राणों में रस बह रहा है की वो आये उसका प्रेमी और ले जाये । जैसे किसी माँ के स्तन में दूध भरा हो और उसका बेटा खो गया हो और उसके सारे प्राण तड़प रहें हैं की उसका बेटा कहाँ है जिसे वो खोजे जो उसे हल्का कर दे नीर्भार कर दे । ऐसे उस वृक्ष के प्राण पीड़ित होने लगे की वो             आये .. आये .. आये उसकी साड़ी आवाज़ यही गूंजने लगी की .. आओ । बहुत दिनों बाद वो आया वो लड़का तो प्रौढ़ हो गया था। 
वृक्ष ने उससे कहा " आओ मेरे पास मेरे आलिंगन में आओ .. "
उसने कहा " छोडो ये बकवास ये बचपन की बातें हैं ! "
अहंकार प्रेम को पागलपन समझता है .. बचपन की बातें समझता है । 
उस वृक्ष ने कहा " आओ मेरे पास .. मेरे डालियों पर झूलो "
उसने कहा " छोडो ये फिजूल की बातें .. मुझे एक मकान बनाना है .. मकान दे सकते हो तुम ? "
वृक्ष ने कहा .. मकान ! .. हम तो बिना मकान के ही रहते हैं .. मकान में तो सिर्फ आदमी रहता है .. दुनियां में और कोई मकान में नहीं रहता .. सिर्फ आदमी रहता है .. सो देखते हो आदमी की हालत .. मकान में रहने वाले आदमी की हालत .. उसके मकान जितने बड़े होते जाते हैं आदमी उतना छोटा होता चला जाता है .. हम तो बिना मकान के रहते हैं .. लेकिन एक बात हो सकती है की अगर तुम मेरी शाखाओं को काटकर ले जाओ तो शायद तुम अपना मकान बना लो !
और वो प्रौढ़ कुल्हारी लेकर आ गया और उसने उस वृक्ष की शाखाएं काट डाली, वृक्ष एक ठूँठ रह गया नंगा लेकिन वृक्ष बहुत आनंदित था । प्रेम सदा आनंदित रहता है चाहे उसके अंग भी कट जायें .. लेकिन कोई ले जाये .. कोई बाँट ले .. कोई संम्मिलित हो जाये साझीदार हो जाये । और लड़के ने तो पीछे मुद कर भी नहीं देखा और उसने मकान बना लिया । 
और वक़्त गुजरता गया वो ठूंठ राह देखता वो चिल्लाना चाहता, लेकिन अब उसके पास पत्ते भी नहीं थे, शाखाएं भी नहीं थी । हवाएं आती और वो बोल भी नहीं पाता .. बुला भी न पाता । लेकिन उसके प्राणों में तो एक ही गूँज थी आओ - आओ । और जब बहुत दिन हो गए थे तब वो बच्चा जो अब बूढा हो गया था, पास से निकल रहा था वृक्ष के पास आ के खड़ा हो गया । तो वृक्ष ने पूछा .. क्या कर सकता हूँ मैं और तुम्हारे लिए ? ... तुम बहुत दिनों बाद आये !  
उसने कहा .. तुम क्या कर सकोगे ! .. मुझे दूर देश जाना है धन कमाने के लिए .. मुझे एक नाव की जरूरत है !
वृक्ष ने बिना सोचे कहा .. तुम मुझे और काट लो .. मेरे इस जड़ से नाव बन जाएगी .. और मैं बहुत धन्य होऊंगा कि मैं तुम्हारी नाव बन सकूं, मैं तुम्हें दूर देश ले जा सकूं । लेकिन तुम जल्दी लौट आना और सकुशल लौट आना .. मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा । 
लड़के ने आरे से उसे और काट डाला, अब वो पेड़ एक बहुत छोटा सा ठूंठ रह गया । और वो दूर यात्रा पर निकल गया । और वो ठूंठ भी प्रतीक्षा करता रहा कि वो आये - आये, लेकिन अब उसके पास कुछ नहीं देने को । सो शायद वो अब नहीं आएगा । क्यूंकि अहंकार वहीँ आता जहां कुछ पाने को है .. अहंकार वहाँ नहीं जाता जहां कुछ पाने को नहीं है । 
मैं उस ठूंठ के पास एक रात का मेहमान हुआ था तो वो ठूंठ मुझसे बोला .. मेरा मित्र अब तक नहीं आया .. मुझे बहुत अधिक पीड़ा होती है कि कहीं नाव डूब न गयी हो .. कहीं वो भटक न गया हो .. कहीं किसी दुसरे किनारे पर विदेश में भूल न गया हो .. कहीं वो डूब न गया हो .. कहीं वो समाप्त न हो गया हो । एक खबर भर कोई मुझे ला दे, अब मैं मरने के करीब हूँ .. एक खबर भर कोई ला दे कि वो सकुशल है .. फिर कोई बात नहीं .. फिर सब ठीक है .. अब तो मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है, सो अगर मैं बुलाऊँ भी तो शायद वो नहीं आएगा .. क्यूंकि वो सिर्फ लेने की ही भाषा समझता है । 
अहंकार लेने की भाषा समझता है ... प्रेम देने की भाषा है !  
इससे ज्यादा इस कहानी में सुनने और सुनाने के लिए कुछ नहीं है ... 

खुर्पेंचूं ने जुगत लड़ा के, दिया कहानी सुनाये 
समझ समझ के फेर में, कईयों को समझ न आये 
बात खुली और सच्ची है, अब किस किसको समझाये 
बालक वृक्ष में जो मन सोहे, वो खुद को वहीँ बिठाये ..   

कहानी ओशो वाणी का अंश है ...            
                   
                        

      

















                                      

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