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Friday, May 15, 2015

रेप, रेप होता है … बैचलर, मैरिटल या डिवोर्सड नहीं !!!


हमारे आसपास के कुछ पत्रकारों के लिये विशेष लेख   

मित्रों वैसे तो ये ऐसा मुद्दा है जिस पर कभी निष्पक्ष रूप से बहस हो ही नहीं सकता खासकर हिंदुस्तान जैसे देश में  … क्यूंकि मैरिटल रेप सीधा महिलाओं से जुड़ा मुद्दा बना दिया गया और भारत में अगर आपने महिला विरोध में कुछ भी कहा नहीं, की गए तेल लेने  … आईये बताता हूँ कैसे ?

        मेरे कुछ सवाल हैं अपने उन पत्रकार मित्रों (महिला और पुरुष दोनों) से जो बिना सोचे समझे अनधकाहे ज्ञान बघारने लगते हैं इस तरह के मुद्दों पर  … वो भी दो चार आस पास के केस स्टडीज़ को समेट कर  

महानुभावों आप किस समाज में में मैरिटल रेप पर कानून बनाने की वकालत कर रहें है  … उस समाज में जहां सेक्स या शादीशुदा जिंदगी की शुरुआत बिना रेप जैसी स्थिति से नहीं हो सकतीअगर इस समाज के पति उस पहली रात को थोड़ी जबरदस्ती करना छोड़ दें तो आपको क्या लगता है कितनी फीसदी लड़कियां अपना कौमार्य छोड़ पायेंगी ? और हर पति सुहाग रात की अगली सुबह ही सलाखों के पीछे होगा ?

जनाब जिस समाज में सेक्स जैसी बुनियादी जरूरत आज भी हौआ हो, जिस समाज की महिलायें आज के दौड़ में भी सेक्स को सिर्फ पति को खुश करने जरूरत के हिसाब से देखती होंजिस समाज में आज भी महिलायें अपने पुरुष मित्र या पति से सेक्स के पहले अनुरोध की ईक्षा ही नहीं रखती, बल्कि अपना अधिकार समझती हो  … और आखिरी में ये भूलिए की ये वही समाज है जहां अगर किसी कारण वश पति ने कुछ लम्बे समय तक सेक्स की ईक्षा नहीं जताई तो पत्नी का तीखा सवाल वो भी पूरे अधिकार से की " तुम्हारा किसी और के साथ तो चक्कर नहीं चल रहा !! "  … क्या आप लोगों को लगता है कि ऐसे समाज में मैरिटल रेप पर कानून का कोई मतलब है ??? 

चलिए आप बुद्धिजीवी लोग हैं इतनी जल्दी तो क्या, अंत तक नहीं मानेंगे  … आगे बढ़ते हैं  :)

मान लिया हिंदुस्तान अब उस कगार पर गया है जहां मैरिटल रेप जैसे कानून की जरूरत है  … ऐसे में सवाल ये उठता है मैरिटल रेप जैसे अपराध को मापने के क्या मापदंड होंगे ? मतलब कब ये माना जायेगा की ये आपसी सहमति से किया गया मैरिटल लव या सेक्स था और कब ये रेप हो गया ?

थोड़ा टटोलते हैं  … 

1.  क्या गाजे - बाजे और लाखों खर्च कर अग्नि के सात फेरे लेने साथ, जो एक गुपचुप रजामंदी नव दंपत्ति दुसरे को देते आये हैं, अब उसे सिर्फ एक घर में रहने, एक साथ शॉपिंग करने, खाना खाने, फिल्म देखने जैसे जरूरतों तक के लिए ही रजामंदी मानी जाये ? क्या अब पहले दिन से लेकर सेक्स की इक्षा ख़त्म होने तक जीवन भर दोनों पक्ष रोज या शुरूआती दिनों में तो, एक ही दिन में कई बार एक दुसरे से रजामंदी लेकर ही सेक्स के लिए आगे बढ़ेंगे …  बड़ा सवाल ! रजामंदी का तरीका क्या हो  ? … देखिये चूँकि अब सवाल अपराध होने और सज़ा पाने का है सो ज़ुबानी रज़ामंदी पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्यूंकि जुबां पलटते देर कितनी लगती है  … तो ऐसे में लिखित रज़ामंदी ही चल पायेगी फिर सवाल उठता है कि क्या सरकार या सोसाइटी किसी खास किस्म का कन्सेंट प्रोफार्मा और उसे सहेज के रखने की जगह बना के दोनों दंपत्ति को देगा, ताकि हर बार का हिसाब किताब संभला रहे  … वरना क्या पता झगड़ा किसी और बात पर दिसंबर में हो और पत्नी पिछले 10 जून की शिकायत ठोंक दे, की उस दिन इन्होने बिना मेरी इक्षा से मेरे साथ सेक्स किया थाअब ऐसे में पति या तो उस दिन का कन्सेंट लेटर दे, या जाये जेल मेरा एक सुझाव हैक्यों नहीं मैरिज दफ्तर में ही एक नया विंग खोल दें " मैरिटल सेक्स कन्सेंट सेल "  दोनों व्यक्ति रोजमर्रा के अपने - अपने कन्सेंट, पोस्ट -मेल के ज़रिये यहां भेज दिया करें बस सिर्फ उन दिनों का ध्यान रखना होगा जब कभी ये छुट्टी बिताने कहीं ऐसी जगह जाएँ जहां से तुरंत फुरन्त में मेल  सुविधा होऐसे में कुछ एडवांस में मेल ड्राफ्ट कर किसी अपने को छोड़ जाएँ वो अपनी विवेक के हिसाब से उसे सेल को भेजता रहे

2. चलिए कन्सेंट का तो मसला हो गया  … अब बात है आग्रह करने की क्या नए कानून में सेक्स आग्रह पर भी कुछ ख़ास टिपण्णी होगी ? जब शादी के बाद भी बिना मर्ज़ी का सेक्स अपराध होने लगा तो क्या बिना इक्षा के अगर कोई पति अपनी पत्नी से सेक्स के लिए आग्रह करे उसे " सेक्सुअल हरासमेंट " नहीं माना जायेगा ? कायेदे से तो माना जाना चाहिये ... लेकिन चलिये चुकिं मामला शादी शुदा है सो छोड़ा जा सकता है ।

3. अब बात अाती है सेक्स की जो सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो सेक्स या प्यार कहा जायेगा ... या फिर जिस दिन पत्नी का मूड बिगड़ा पति सीधे जेल जायेगा ! अाईये इस पर भी विचार कर ही डालें ...
मुझे सच में ये चिंता है कि मैरिटल रेप कानून से खौफजदा एक पति पहली रात कैसे हिम्मत जुटा पायेगा अपनी पत्नी का कौमार्य भंग करने की ? माना उसने लिखित में सेक्स कॉन्सेंट दिया हुअा है लेकिन उस पूरी प्रक्रिया में जो पीड़ा होगी उसका हिसाब-किताब कैसे होगा ? ये कैसे पता चलेगा कि किस सीमा तक की पीड़ा मैरिटल सेक्स या प्यार है अौर किस सीमा के बाद मैरिटल रेप ? अौर अापको पता ही होगा कि हर महिला में इस पीड़ा का स्तर अलग-अलग होता है ... फिर क्या नये कानून में इस खास क्षण के लिये कोई विशेष प्रावधान होगा ? क्या कोई ऐसा पारिमाण बन सकता है जो इस पीड़ा को माप सके ? चलो ऐसे में अगर जुगाड़ लगा के कोई एक परिमाण बना भी लिया जाये तो अगले जोड़े पर वो फेल ... अौर लौंडा गया जेल !! तो जगतज्ञानीयों अापको नहीं लगता कि ऐसी सूरत में हर लड़का शादी के महीनों पहले से सोमवार का चालिसा उपवास रखेगा, सो उसे पहले से कौमार्य भंग हुयी पत्नी मिले !! फिर सोचिये उस हनीमून गिफ्ट की अहमियत अौर यादें क्या रह जायेगीं, जिसके लिये अाज भी  करोड़ो भारतीय युगल अपना कौमार्य संजोगे रखते हैं ? क्या उस पीड़ा के साथ जीवन डगर के पहले पग पर, एक दुसरे को अात्मसाथ करने वाले उस क्षण के लिये कोई प्रावधान कर सकेगा मैरिटल रेप कानून ? मुझे तो नहीं लगता ...

 4. मित्रों सेक्स एक बहुत ही व्यतिगत अौर बुनियादी जरूरत है ... अापको खुद भी पता नहीं होता कि कौन सा क्षण, छुअन या अासन अापको या अापके पार्टनर को उस अानंद तक पहुंचा दे । हर व्यक्ति में सेक्स की क्षमता अौर ईक्क्षित अानंद का अाधार अलग -अलग होता है ... इसे भारतीय पुरातन विज्ञान अौर विदेशी मॉडर्न साईन्स भी मानता है । विदेशों में तो फिर भी इस बुनियादी जरुरत की पूर्ति व्यक्ति थोड़ी सहजता से कर सकता है ... अौर उसे वहां अनैतिक नहीं माना जाता । लेकिन हम जिस समाज की बात कर रहें हैं उसमें तो शादी ही शरीर के इस बुनियादी जरुरत को पूरा करने का एक मात्र साधन है । 21वीं शताब्दी में जीने वाला हमारा ये समाज, अाज भी शादी से पहले या बाहर के सेक्स संबन्ध को नैतिक नहीं मानता ... फिर ऐसे में अापको लगता है कि उस मात्र एक जगह पर भी मैरिटल रेप जैसे कानून की एक नयी तलवार उन जोड़ो पर लटका दी जाये ? बाहर पटाने पर समाज द्वारा व्यभिचारी माना जाना ... कार्ल गर्ल के साथ होने पर छापे पर जाना अौर वेश्यालयों में गुप्त रोग के चपेट में अाने डर पहले से ही कम है क्या, कि अब बेडरूम में भी व्यक्ति इस डर में जिये कि रति क्रिया के दौरान पत्नि कि थोड़ी भी चींख निकली नहीं कि नीचे 100 नम्बर का सॉयरन घनघनाने लगेगा ? 

खैर छोड़िये ... हमारे देश में कोई भी कानून या बहस कभी इतने गहन सोच अौर दूरदर्शिता को ध्यान में रखकर बने हैं, जो अाज हम उम्मीद करें ... अगर ऐसा होता तो कम से कम 498A अौर डोमेस्टिक वॉयलेन्स जैसे उपयोगी कानून का स्वरूप वो न होता जो अाज है । चलिये ये हम अपने उन बुध्धिजीवी बंधुअों पर छोड़ देते हैं जिनके लिये मैरिटल रेप सिर्फ अौर सिर्फ एक सनसनी फैलाने वाला मुद्दा है । कानून बने या ना बने इससे इनका कोई सरोकार नहीं ... हां इस पर ढोल खूब पीटा जाये, वो एक भी मौका ये नहीं छोड़ना चाहते ... क्या करें इनकी भी मज़बुरी है टीअारपी अौर क्लिक्स या हिट्स की तलवार इनके उपर भी हर वक्त लटकते रहती है । ये इनका काम है अौर इन्हें करने देते हैं ... लेकिन मेरा फिर एक सवाल है ... मैरिटल रेप की पैरोकारी करने वाले इन बंधुअों में से कितनों को पता है कि सेक्स होता क्या है, इसके कितने स्वरूप हैं अौर ये कितना जरूरी है ? मुझे नहीं उम्मीद है कि इसकी जानकारी इनमें से ज्यादातर लोगों को होगी !  सेक्स एक नैसर्गिक लक्षण अौर स्वरूप में अलग-अलग जीव के साथ उसके जन्म के साथ ही जन्म लेता है ... ऐसे में बिना जाने उसपर किसी भी तरह की पाबन्दी लगाना उल्टा फल देने वाला हो सकता है ।

सो अाईये मित्रों बहुत ही संक्षिप्त में सेक्स अौर उसके स्वरूप को समझने का प्रयास करें ... ये जरूरी है, वर्ना ये वही बात होगी कि पूरी महाभारत देख लिया पर पता ही नहीं कि पांचाली के कितने पति थे । 

मित्रों पूरे विश्व में बेहतर पारस्परिक संबन्ध अौर सेक्स के उपर सबसे पुराना व सबसे सटीक (70-80 फिसदी) अगर कोई व्याकरण मौजूद है तो वो "कामसुत्र " है ... विश्व भर में इसकी उपलब्धता अौर मान्यता है, अौर विश्व भर के शोधकर्ता इसे अाज भी उपयोगी मानते हैं । मैं सेक्स के उपर अपना टुच्चा ज्ञान न पेलते हुये इसी किताब के हवाले से अापको सेक्स अौर उसका स्वरूप समझाने की कोशिश कर रहा हूं ... जिसे लगभग 5000 साल पहले अाचार्य वात्सायन बड़े मेहनत अौर शोध के बाद इस हसरत से लिखा था कि अागे ये भारतीय समाज के काम अा सके । इस किताब के अाधार पर पूरे संसार में मात्र तीन प्रकार के पुरुष अौर तीन ही प्रकार की स्त्रीयां होती हैं ... पुरूष के प्रकार हैं - शष(खरगोश), वृष(बैल) अौर अश्व(घोड़ा) ... इसी प्रकार स्त्रीयों के प्रकार हैं - मृगी(हिरणी), बड़वा(गाय) अौर हस्तिनी(हथिनी) ... 
अौर खासकर शारीरिक संबन्ध के हिसााब से इनके उपयुक्त मेल इस प्रकार हैं ...

शष(खरगोश) के साथ मृगी(हिरणी)
वृष(बैल) के साथ बड़वा(गाय)  
अश्व(घोड़ा) के साथ हस्तिनी(हथिनी) 

ये मेल मूल रूप से दोनों के शारीरिक गठन, नैसर्गिक व्यब्हार एवं गुप्तांगों के लम्बाई अौर गहराई के अाधार पर किया गया है । विस्तार से जानने के ईक्छुक "कामसुत्र " के पहले कुछ पन्ने पलट लें ... ये किताब हिन्दी अौर अंग्रेजी दोनों में कम कीमत पर सहज उपलब्ध है ... मित्रों अगर मैरिटल रेप जैसे दंश से बचना है तो इतनी मेहनत तो अापकी भी बनती है । 

उपरलिखित जोड़ों के हिसाब से ये सभी रति क्रिया में अलग-अलग तरह से प्रवृत्त होते हैं  ... जहां शष-मृगी धीमी गति अौर संकोची स्वभाव के साथ कम समय के लिये, तो वहीं वृष-बड़वा गतिशील अौर खुले स्वभाव के साथ लंबे समय तक इस क्रिया में प्रवृत्त रह सकते हैं ... जबकि अश्व-हस्तिनी काफी गति से एक दुसरे पर बल प्रयोग करते हुये लंबे समय तक रति क्रिया कर सकते हैं ... यहां तक कि कई बार इस दौरान ये दोनों एक दुसरे के प्रति अाक्रामक भी हो जाते हैं । कामसुत्र में हर एक जोड़े के लिये अलग-अलग अासनों एवं क्रियाअों के विस्तृत उल्लेख है ... अौर अलग-अलग जोड़ों के लिये सलाह व निषेध दोनों है । चुम्बन(किसींग), केश कर्षण(बालों को खींचना), नख छेदन(लव मार्क), दंत छेदन(लव बाईट), मुख मैथुन(अोरल सेक्स) यहां तक की गुदा मैथुन(अनल सेक्स) को भी ये किताब गलत नहीं बताता ... लेकिन हां उसके लिये साथी की मंजूरी के साथ, उसे उस क्रिया के लिये तैयार करने की, अौर क्रिया को करने की सही विधि का उल्लेख भी है, जिससे साथी को कम से कम पीड़ा हो अौर वो भी उस अानंद में बराबर का हिस्सेदार हो ... साथ ही कुछ खास किस्म के लोगों के लिये कुछ खास क्रियाअों पर निषेध भी लगाता है । अौर अापकी जानकारी के लिये बता दूं कि अाज पूरे विश्व में सेक्स पर होने वाले हर शोध अौर साहित्य का अधार कहीं न कहीं कामसुत्र ही है !             
ऐसे में ये विचार का विषय है कि जिस क्रिया का नैशर्गिक लक्षण अौर स्वरूप इतना जटिल अौर विविधता भरा हो ... उस पर सीधे किसी कानून को बिना विचारे कैसे थोपा जा सकता है ?

लेकिन अब ये भी सवाल है कि जिन रश्मि अौर पूजा जैसी महिलाअों ज़िक्र बीबीसी के रिपोर्ट में किया गया उनका क्या होगा ? ... क्या कोर्ट के उस दलील को मान लिया जाये कि, भारतीय समाज में शादी एक पवित्र बंधन है इसलिये इसे रेप नहीं माना जा सकता ? कुछ हद तक ये बात सही भी है ... अाईये विचार करें ...

मित्रों रेप की स्थिति में पीड़ित का एक पल के लिये भी मंजूरी नहीं होती ... चाहे उसके साथ रेप एक बार हुअा हो या उसे बंदी बनाकर बार-बार उसका मर्दन किया गया हो । लेकिन मुझे नहीं लगता कि रश्मि अौर पूजा जैसी महिलाअों के साथ ऐसा कुछ हुअा होगा ... अाखिर में अाकर बेशक उनकी स्थिति रेप या उससे भी बद्तर हो चुकी होगी, लेकिन शुरुअात में शादी के बंधन के साथ ही इन्होने अपनी रज़ामंदी दर्ज करायी थी यौन क्रिया में संलिप्त होने के लिये । हो सकता है अपने पतियों के इस व्यब्हार का पता इन्हें पहली रात ही हो गया हो ... लेकिन फिर भी एक नई उम्मीद के साथ थोड़े कम मन से ही सही लेकिन अगली रात इन्होने उसे स्वीकारा ... शायद सोच ये रही हो कि अाज वो मुझे समझेगा अौर उसी तरह प्यार से मेरे साथ संलग्न होगा, जिस तरह होने के लिये मैंने इसे मंजूरी दी है ... अौर इसी सोच के साथ दिन, महीनों व साल गुजरने पर महसूस हुअा कि स्थिति अब रेप की या रेप जैसी हो गयी है । अब इसी पक्ष को उलट कर देखते हैं ... क्या पता ज्यादा कामुक अौर स्वभाव से वृष या अश्व पति ने भी अपनी गति उतनी ही बनाये रखा इस उम्मीद पर, कि धीरे-धीरे ये मेरे नैशर्गिक लक्षण को समझ लेगी अौर फिर अाराम से उसका वहन करने लगेगी ।
अगर थोड़ा समय लगा कर इन केसों का अध्धयन किया जाये तो जिन 10 फिसदी केसों का हवाला इस बीबीसी के रिपोर्ट में दिया गया है, उनमें ज्यादातर केसों में स्थिति लगभग यही रही होगी ... लेकिन रश्मि की कहानी को सुनने के बाद ऐसा लगता है कि वो अलग या अपवाद हैं ... ये जघन्य है ! ... इसकी ईजाजत ना तो सेक्स का कोई ग्रामर देता, न समाज अौर ना ही कानून । यहां बेशक एक कानून की जरूरत है ... लेकिन उसे मैरिटल रेप कानून नहीं कहा जा सकता !! क्युंकि थोड़ा संवेदनशील होते हुये अपवादों (जो काफी कम हैं) को अलग रखकर इस पर विषय पर गहन चिंतन करें, अौर मौजूद सेक्स व्याकरणों को अाधार मानते हुये सोचें कि अगर स्थिति ऐसी ही रही होगी, जैसा उपर वर्णित है ... तो किस एंगल से अापको ये रेप लगता है ? अौर इसमें किसका दोष है ?

दोष है ... हमारे अाज के समाज में शादी जैसी उस संस्था का जो एक रात के उत्सव के बाद हमें सेक्स करने की अाज़ादी तो दे देता है, लेकिन शादी से पहले एक दिन भी सेक्स को समझने के लिये प्रेरित नहीं करता !! 

दोष है ... हमारे मां-बाप का जो समाज के साथ ताल मिलाते हुये हमें जीवन साथी चुनने की तो छूट तो दे देते हैं, लेकिन अपने अनुभवों के अाधार कभी हमसे खुल के बात नहीं करते कि कैसा सेक्स पार्टनर मेरे लिये उचित होगा !!  

दोष है ... हम पढे लिखे विवेकशीलों का जो बॉय या गर्ल फ्रेंड से झगड़े कि स्थिति में मनोचिकित्सक को संपर्क करने में गर्व महसूस करते हैं, लेकिन किसी सेक्स के जानकार से खुद के बारे में बात करने पर शर्माते हैं !!

मतलब साफ है दोस्तों अगर हम अाज नहीं समझे तो ये समस्या दिन व दिन बड़ी होती जायेगी ... महामारी अगर रोकनी है तो उसके जड़ को ढुढ़ना होगा ... बिमारी के ईलाज साथ-साथ उसके रोकने के उपाय पर भी उसी शिद्दत से काम किया जाना चाहिये । 

अब दो मिनट के लिये मैं दुबारा अपने बुद्धिमान साथियों से मुखातिब होना चाहुंगा ...
महानुभावों एक बात बतायें ... 
एक रेप केस पूरे देश अौर विदेश तक में हंगामा ... 
एक केजरीवाल पर हर चैनल में बवाल ... 
कोर्ट के एक अादेश पर पूरा सोशल मीडिया में उछाल, अौर गालियां खा कर भी उसका जबाब लिखने से नहीं चूकते ...
जब अाप इतनी शिद्दत से किसी मुद्दे को उठाते हो, तो फिर उसे उतनी ही गहराई से समझने में कुछ बिगड़ जायेगा अापका ? दो केस पकड़े, पन्ने या समय के हिसाब से 6 सवाल पूछे, अपने मतलब के 3 लगाये अौर बिना सोचे समझे कह दिया की मैरिटल रेप का कानून बनाअो ... पहले अाप ठीक से मेरिज का मतलब समझते हो ? 

शादी विश्वास के साथ शुरु होती है अौर उसी के भरोसे चलती है ... जिस दिन विश्वास गया उसी दिन मेरिटल स्टेटस भी हिल जाता है । अाप लोगों को क्या लगता है ... कुछ कानून की वजह से अाज हमारे देश में जो शादी की स्थिति है, उसमें एक नया कानून पति-पत्नि के रिश्तों में अौर प्रगाढ़ता बढायेगा ? अगर अापको ऐसा लगता है तो फिर अापके लिये यही कहा जा सकता है " अाप तो अाप ही हैं ... अाप के क्या कहने "

मित्रों मेरा उपर के तर्कों का ये मतलब नहीं कि रश्मि अौर पूजा जैसी महिलाअों को यथास्थिति होना चाहिये ... जल्द से जल्द ऐसा एक कानून हो जो इन महिलाअों को ही नहीं बल्कि पूरूषों को भी ऐसी स्थिति से राहत दिला सके ... क्युकि ऐसा नहीं कि ऐसी स्थिति के शिकार पूरूष नहीं हैं, ये अलग बात है कि पुरूषत्व के चक्कर में बोल नहीं पाते । अाप कानून बना के देखो ... बाढ लग जायेगी अर्जीयों की !!     

हिट्स ललायितों ... दुनियां कितनी भी मॉर्डन हो जाये फिर भी अमरूद के पेड़ पर झटहा फेंकने से अाम नहीं गिरते ... अगर अाम तोड़ना है तो अाम के पेड़ पर ही ढेला मारना होगा !!   
सेक्स, सेक्स होता है ... रेप, रेप ! सेक्स में की गयी थोड़ी ज़ोर-ज़बरदस्ती इस क्रिया का एक हिस्सा है, जो दोनों को अानंद दे सकता है । यकीन नहीं है तो किसी दिन कर के देख लिजीये हम-अाप में ही बहुत से लोग उस परिधि में अा जायेंगे ... अलग-अलग चश्में से अलग-अलग खासकर सामाजिक समस्यायों को देखना ही दूरदर्शिता है ... क्युकि इसका रायता फिर फैलता बुरा है अौर समेटे नहीं सिमटता ... उदाहरण सामने है 498A !! 
फिर 10 फिसदी लोगों के साथ होने वाले समस्या के लिये 90 फिसदी लोगों के उपर तलवार लटका देना कौन सी बुद्धिमानी है ?   
सो रेप अौर सेक्स में अन्तर होता है ... अगर सेक्स में कोई खामी है तो फटाक मुंह उठा के उसे रेप नहीं कह देते !!
चींख-चींख कर "फिफ्टी शेड्स अॉफ ग्रे" को महिलाअों के लिये सेक्स की दुनियां का परिवर्तनकारी ग्रंथ बताने वाले अाप लोग अगर सेक्स अौर रेप में अन्तर नहीं कर पा रहे ... फिर तो वाकई अापकी हालत दयनीय है !!!

रेप, रेप होता है ... बैचलर, मैरिटल या डिवोर्सड् नहीं !!!!


Sunday, June 30, 2013

DIVORCE is a due need in marriages based on LOVE !!!


एक समय में भारतीय विवाह व्यवस्था जितना सरल अौर स्थिर था अाज वो उतना ही जटिल अौर अस्थिर हो गया है । 
अाखिर किसी भी समाज को विवाह की जरुरत क्यूं है ? ... सीधा जबाब है ... दो अात्माअों या व्यक्तियों या शरीरों के परस्पर वैध मिलन के लिये, जो एक बुनियादी अौर नैशर्गिक जरूरत है, शारीरिक अौर श्रृजन कि दृष्टि से ... अौर लम्बे समय तक स्थिर व बेहतर जीवन व्यवस्था के लिये । अब अगर ऐसे में कोई ये कहे कि पिछले पाँच हज़ार साल से अाने वाले पाँच हज़ार साल तक इन दोनों का एक साथ मिल पाना संभव नहीं तब समस्या अौर गंभीर हो जाती है । अब ऐसे में एक साधारण व्यक्ति कैसे निर्णय ले कि विवाह का अाधार शारीरिक(सामाजिक) हो या प्रेम का ? ... लिया जा सकता है निर्णय अगर हम समझ पायें कि शारीरिक(सामाजिक) एवं प्रेम के अाधार में क्या बुनियादी फर्क है । अौर सैकड़ो वर्षों प्रचलन में चला अा रहा शारीरिक बुनियाद पर अाधारित विवाह कितना सक्षम है ठोस अौर लम्बे सम्बंध के लिये ।
कायेदे से देखा जाये तो विवाह दो शरीरों का हो सकता है ... दो अात्माअों का विवाह संभव नहीं ... दो अात्माअों का प्रेम हो सकता है । अगर प्रेम से विवाह निकलता हो तब तो प्रेम एक गहरा अर्थ ले लेता है  ... लेकिन अगर विवाह दो पंडितों अौर दो ज्योतिषियों के हिसाब किताब से निकलता हो, या जाति के विचार से निकलता हो या धन के विचार से निकलता हो तो वैसा विवाह कभी भी शरीर से गहरा नहीं जा सकता । लेकिन ऐसे विवाह का एक फायेदा है ... शरीर जिन समाजों में विवाह का अाधार है उनमें विवाह स्थिर होगा ... जीवन भर चल जायेगा । क्युंकि शरीर अस्थिर चीज़ नहीं है ... शरीर बहुत स्थिर चीज़ है उसमें परिवर्तन बहुत धीरे धीरे अाता है अौर पता भी नहीं चलता ... शरीर जड़ता का तल है । इसलिए जिन समाजों ने ये चाहा की विवाह स्थिर हो ... एक ही विवाह काफी हो जिवन भर के लिये, बदलाहट की जरुरत ना पड़े ... उनको प्रेम अलग कर देना पड़ा । क्योंकि प्रेम का सम्बंध सीधे  मन से होता है ... अौर मन चंचल है ... जो समाज प्रेम की बुनियाद पर विवाह को निर्मित करेंगे उन समाजों में तलाक अनिवार्य होगा । उन समाजों में विवाह परिवर्तित होगा ... विवाह स्थायी व्यवस्था नहीं हो सकती । क्योंकि प्रेम तरल है, मन चंचल है, शरीर स्थिर अौर जड़ है ... अापके घर में एक पत्थर पड़ा हुअा है ... सुबह पत्थर पड़ा था, सांझ तक वहीं पड़ा रहेगा ... सुबह फूल खिला था, सांझ तक मुरझा जायेगा अौर गिर जायेगा !! फूल ज़िन्दा है ... जन्मेगा ... जियेगा ... मरेगा !! पत्थर मुर्दा है ... वैसे का वैसा सुबह पड़ा था ... वैसे ही शाम को भी पड़ा रहेगा ... पत्थर बहुत स्थिर है । विवाह पत्थर की तरह है । शरीर के तल पर जो विवाह है वो स्थिरता लाता है ... समाज के हित में है ... लेकिन एक एक व्यक्ति के अहित में है, कयोंकि वो अस्थिरता शरीर के तल पर लायी गयी है, अौर प्रेम से बचा गया है ... इसलिये शरीर से ज्यादा पति अौर पत्नी का मिलन नहीं पहुंच पाता गहरे में । एक यांत्रिक रूटीन हो जाता है, उस अनुभव को रीपीट करते रहते हैं अौर जड़ होते चले जाते हैं । लेकिन उससे ज्यादा गहराई कभी नहीं मिलती संबन्ध या मिलन की । जहां प्रेम के बिना विवाह होता है उस विवाह में अौर वेश्या के यहां जाने में बुनियादी भेद नहीं ... थोड़ा सा भेद है । वेश्या को अाप एक दिन के लिये शरीर से स्वीकारते हैं अौर पत्नी को अाप जीवन भर के लिये शरीर से स्वीकारते हैं । ज्यादा फर्क नहीं है ... जहां प्रेम नहीं है वहां मिलन कि मजबूरी है ... चाहे वो एक दिन की मजबूरी हो या पूरी उम्र की । हालांकि साथ रहने से एक तरह का पारस्परिक सम्बंध हो जाता है , लोग उसी को प्रेम समझ लेते हैं, जबकि वो प्रेम नहीं है । शर्तिया वो वैसा अात्मा तृप्त करने वाला प्रेम नहीं जिसकी खोज की अाड़ में विवाह से पूर्व हम कई परिक्षणों से भी नहीं हिचकते । शरीर के अाधार पर विवाह में शरीर के तल से गहरा सम्बंध कभी भी उत्पन्न नहीं हो पाता अौर अात्मा अतृप्त ही रह जाती है । 
जो लोग प्रेम की बुनियाद पर विवाह करते हैं उनका मिलन शरीर के तल से थोड़ा गहरा जाता है । वो मन तक जाता है ... उसकी गहराई मनोवैज्ञानिक है । लेकिन विवाह में बंधते ही उनकी दशा भी जड़ हो जाती है ... अौर रोज रोज पुनरुक्त होने से वो भी शरीर के तल पर अा जाता है, अौर यांत्रिक हो जाता है । पश्चिम नें जो व्यवस्था विकसित की है दो सौ वर्षों में प्रेम विवाह की वो मानसिक तल तक ले जाती मिलन को ... लेकिन उसका असर ये है कि वहां समाज अस्त व्यस्त हो गया है । कयोंकि मन का कोई भरोसा नहीं है ... वो अाज कुछ पसंद करता है अौर कल उसमें एक नयी चाह पनपने लगती है ... सुबह कुछ कहता है, सांझ कुछ कहने लगता है ... घड़ी भर पहले कुछ कहता है, घड़ी भर बाद कुछ अौर कहने लगता है । शायद अापने सुना होगा की वायरन ने जब शादी की ... तो कहते हैं कि तब तक वो कोई साठ - सत्तर स्त्रियों से सम्बंध बना चुका था । एक स्त्री ने उसे मजबूर भी कर दिया विवाह के लिये । अौर जब वो चर्च से बाहर अा रहा था विवाह कर अपनी पत्नी का हाथ पकड़े, घंटीयां बज रही है चर्च की मोमबत्तीयां जल रही हैं । अभी जो मित्र बधाई देने अाये थे वो विदा हो रहें हैं ... अौर वो अपनी पत्नी के साथ सामने खड़ी घोड़ा गाड़ी में बैठने जा रहा है ... तभी उसे चर्च के सामने ही एक अौर स्त्री जाती हुयी दीखी ... एक छन के लिये वो भूल गया अपनी पत्नी को, उसके हाथ को, उस विवाह को ... सारा प्राण उस स्त्री का पीछा करने लगा । जाके वो गाड़ी में बैठा बहुत ईमानदार अादमी रहा होगा उसने पत्नी से कहा कि तुमने कुछ ध्यान दिया, एक अजीब घटना घट गयी ... कल तक मेरा तुझसे विवाह नहीं हुया था तो विचार करता था कि तुम मुझे मिल पायेगी या नहीं ... तेरे सिवाय मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ता था ... अौर जब विवाह हो गया है, मैं तुमहारा हाथ पकड़े नीचे उतर रहा हूँ, मुझे एक स्त्री दिखाई पड़ी गाड़ी के उस तरफ जाते हुये ... मैं तुम्हें भूल गया अौर मेरा मन उस स्त्री का पीछा करने लगा ... अौर एक छन को मुझे लगा कि काश ये स्त्री मुझे मिल जाये !!! मन इतना चंचल है !!   
तो जिन लोगों को समाज को व्यवस्थित रखना था उन्होने मन के तल पर मिलन को नहीं जाने दिया ... उसे रोक लिया शरीर के तल पर ... विवाह करो ! ... प्रेम नहीं !! 
शरीर के तल पर स्थिरता हो सकती है ... मन के तल पर स्थिरता बहुत मुश्किल है !!   
हजारों साल पुराने शरीर अाधारित पारम्परिक वैवाहिक व्यवस्था को हमने पिछले कई सालों से जीर्ण शीर्ण करार दे एक सिरे नकार दिया है ... अौर प्रेम या मन अाधारित अस्थिर विवाह के लिये अभी हम तैयार नहीं सामाजिक अौर मानसिक रूप में फिर ऐसे में सवाल उठता है कि अाज भारतीय समाज में विवाह का अाधार क्या हो  ? क्युंकि जबरदस्ती के मिले जुले अाधार वाले विवाहों के भी कोई बहुत खुशनुमा परिणाम नहीं दिखे हैं पिछले कई सालों से ... अौर विपरीत प्रकृति के दो अाधारों को मिलाकर एक नया अाधार बनाना कम विस्फोटक नहीं भविष्य के लिये !! उदाहरण के लिये पश्चिम को देख लें !!
फिर कहीं ये अागाज़ तो नहीं विवाह व्यवस्था पर सवालिया निशान का भविष्य के लिये ..... ???? 

नोट : ब्लाग में ज्यादातर तर्क अाचार्य रजनीश के स्पीच " संभोग से समाधी तक " से लिये गये हैं          


Tuesday, May 21, 2013

जिंदगीनामा !!




मैं तरन्नुम यु ही गाता चला गया .... 
न सोचा की, क्यूँ मैं गाता चला गया ....
कभी न चाहा की किसी को परेशान मैं करूँ .....
फिर भी जी ने हमें न बक्शा एक पल ....
हर समय का तो हिसाब बराबकर रखा .....
हर गलती पे हमें और जोर से चखा .....
कभी न दिया हमारे सही कदमों का हिसाब  .....
कभी न छाप सकेगी मेरे सच की वो किताब .....

जो हमें ज़ख्म ही देने थे तो क्यूँ आस दिया ....
या कहूं मौत ही देनी थी तो क्यूँ सांस दिया ....  
न मैं बदलूँगा खुद को किसी लालच में ....
क्यूंकि जीने का मज़ा है बस एक इसी सच में ....
जिंदगी क्यूँ ऐसी ही अनबूझ पहेली सी है ....
जब तक तुम जिंदा हो वो एक सहेली सी है .....
जैसे ही दम तुम्हारा खुद से निकल जाएगा ....
फिर ये याराना तुम्हारा साफ़ धुल जाएगा ....
तुम खड़े जहन्नुम इसे कोस रहे होगे ....
ये तुम्हारे ही चले जाने जश्न मनायेगा ....


ज़िंदगी रोज़ नए सपने दिखाती क्यूँ है ....
फिर सुबह तोड़ के हमको यूँ सताती क्यूँ है ....
हमने न माँगी थी हर रोज़ जीने की ये आस ....
फिर भी हर रात निर्मुयी हमें लुभाती क्यूँ है ....
आँखे बंद करने से डर हमें अब लगता है ....
खुली आँखों में ये इतना डराती क्यूँ है ....

दिन तो कट जाते हैं दुनियादारी में ....
शाम रंगीन बना लेता हूँ मैं यारी में ....
जो रात करवट में बिताना चाहूँ ....
बेशबब प्यार से पलकों को सहलाती क्यूँ है ....

कितने मजबूर हैं हम खुद के ही लिए ....
जो हमने पाया है वो न चाहा कभी अपने लिए ....
एसा क्यूँ लगता है की हमें तरसा कर के ....
ज़िन्दगी औरों के प्यास बुझाती क्यूँ है ....


 

Monday, May 20, 2013

देखिये ये हिंदी है !!





दोस्तों आज मैं मज़ाक के मूड में नहीं ... आज मैं वाकई दुखी हूँ की मेरा जन्म भारत में क्यूँ हुआ । और जो चलिए हो भी गया तो बिहार जैसे हिंदी भाषा - भाषी प्रदेश ही मिला था मुझे जन्म लेने के लिए । कहीं दक्षिण भारत में होता तो अपने क्षेत्रीय भाषा के साथ साथ अंग्रेजी से भी मेरा उतना ही भावनात्मक लगाव होता और भारत में अपने ही लोगों के दोगलेपन की शिकार हिंदी के मौत के मुंह में जाते हुए देखने में दुःख नहीं होता । अपने इस अभागेपन पर दुःख से ज्यादा रोष होता है । सिर्फ 12 साल की पूरी उम्र जीने वाला घर का कुकुर अगर बीमार हो जाये तो उसके लिए आज भी हम अपना पूरा जोर लगा देते हैं की वो बच जाये और बांकी के दो चार साल और जी ले हमारे साथ । लेकिन पता नहीं हिंदी ने हमारे साथ क्या दुर्व्यब्हार किया भूत में कि वर्तमान में उसके साथ बलात्कार जैसी घटनाओं के बाद भी हमारी संवेदनाएं नहीं जगती उसके लिए । छोटे शहरों और कम शिक्षितों की तो बात छोडिये, मेट्रो में रहने वाले विशिष्ठों और विशेष शिक्षितों का भी कभी ध्यान नहीं जाता इस पर । आज जहां भारतवर्ष में एक बलात्कार की घटना से संवेदित समाज की मुहीम से कुछ ही दिनों में संविधान की धाराओं में संशोधन करवा देता है । वहाँ हिंदी के साथ हर मोड़, चौराहे, दफ्तर, स्कूल और संस्थानों में हो रही अभद्रदता कैसे आराम से पचा पा रहा है ? हिंदी नाम की इस औरत के एक एक कपडे रोज़ और हर प्रहर अग्रेज़ी बोलने और समझने वाले हिंदी हांथों से उतारे जा रहें हैं और कोई कुछ बोल तक नहीं पा रहा ? क्यूँ ? क्या कारण है ?
बहुत सोचने के बाद भी मैं कोई ठोस उत्तर नहीं ढूंढ पा रहा था ... काफी दिनों तक सोच नहीं पाया की आखिर हिंदी के साथ हमारा ऐसा विलगाव क्यूँ हुआ ? 
फिर मैंने पिछले कई दिनों से लगातार इस प्रश्न को अलग अलग वर्गों में रखना शुरू किया और सवालों से संतुष्ट होने की कोशिश करने लगा ।
सबसे पहले मैंने इसे हिंदी और हिंदी संस्कृति से लगाव रखने वाले कुछ मित्रों के सामने रखा ... सवाल रखने की देर थी भड़ास फूट पड़ी ...
" ये सब आजादी के समय अंग्रेजों की साजिश और हमारे तत्काल के देश के कर्णधारों की गलती है ... अगर उसी वक़्त सारी शिक्षा और काम काज को हिंदी में कराना जरूरी बना दिया होता तो आज हिंदी की ये दशा न होती ... क्या जिन देशों ने अपने मौलिक भाषाओं को पकड़ कर रखा उनका विकास नहीं हुआ ? जापान और जर्मनी को देख लीजिये ! "
सवाल जायज था लेकिन, कारण उतने ठोस नहीं ... सो मैं बहुत ज्यादा संतुष्ट नहीं हुआ ।
मेरा अगला पड़ाव था हमारे समाज में प्रतिष्ठित पत्रकार बन्धुओं का दरवाज़ा ... पत्रकार बंधुओं ने बड़े ही शालीन और मजबूर भाव से हिंदी की दुर्दशा पर चर्चा की ...
" भई देखिये हिंदी का देशव्यापी इस्तेमाल व्यबहारिक रूप में संभव कहाँ है ... पूरा दक्षिण हिंदी को अपनाने के लिए तैयार नहीं है ... बल्कि क्षेत्रीय भाषा के अलावा अंग्रेजों के समय से चली आ रही अंग्रेजी के साथ वो अब ज्यादा सहज हैं ... पूरे देश में सरकारी काम काज ज्यादातर अंग्रेजी में हो रहे हैं ... अब ऐसे में एकदम से तो हिंदी नहीं थोपा जा सकता न ! ... जैसे जैसे कान्वेंट कल्चर बढ़ रहा है नयी पीढ़ी अंग्रेजी के साथ ज्यादा आसानी से आगे बढ़ पा रही है ... तो हिंदी का ह्रास तो होगा ही ! "
जब मैंने कहा कि आपको नहीं महसूस होता की अपने देश की इस मौलिक भाषा और संस्कृति को बचाना चाहिए, ताकि हमारी अपनी पहचान बच सके ... जिसकी कद्र गाहे बगाहे पूरी दुनिया करती है ? और इसमें सबसे ज़िम्मेदार आप पत्रकारों को होने की जरूरत है ... तो जबाब मज़ेदार था ...
" देखिये सबसे पहले तो आप समझ लीजिये कि हिंदी की इस दुर्गति के ज़िम्मेदार हम नहीं हैं ... हम तो अपना काम कर ही रहें हैं न ... अब अगर पाठक ही नहीं हैं तो हिंदी के लेखक किसके लिए लिखेंगे ? ... हम लोगों को ज़बरदस्ती हिंदी घोल के पिला तो सकते नहीं है !! "
मैंने कहा बंधू ये कैसी व्यथा है ... जिस देश में तीन चौथाई से ज्यादा आबादी हिंदी बोल और समझ लेती है ... जो भाषा विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है ... उसके पाठक नहीं मिल रहे ? ... जबाब था ...
" भई शास्त्री जी बात को समझिये ... ये वो आंकड़े हैं जो सिर्फ बोलचाल में हिंदी का इस्तेमाल करते हैं वो भी आधा अधुरा ... जब इन्हें किताब खरीदनी होती है तो " गोदान " का भी अंग्रेजी तर्जुमा ढूंढते हैं ... भाई अंग्रेजी अब जीवन जीने की मजबूरी है ... हमारा घर बोलचाल की हिंदी से नहीं चलता, खरीदी गयी हिंदी पत्र - पत्रिकाओं से चलता है ... पिछले दस - बारह साल से विदेशी संस्थानों के आने और अंग्रेजी के विस्तार ने हमें थोड़ी राहत दी है ... अंग्रेजी समाचार माध्यमों के गुच्छे में हिंदी के एक आध वेबसाइट या पत्रिका ने अब हमारी हैसियत थोड़ी बदली है  ... अब पत्रकार झोला छाप और चप्पल चट्काऊ वाले इमेज से बाहर आ रहा है ... और आप हिंदी का रोना लिए बैठे हैं ... अरे इतने हिंदी चैनल हैं, वेबसाइट हैं, मासिक और पाक्षिक पत्रिकाएं हैं ... और कितना विकास चाहते हैं हिंदी का आप ? और हिंदी का साहित्यिक स्वरुप भी बचा रहे इसके लिए भी हम प्रयासरत हैं समय - समय पर कवि सम्मलेन और विचार गोष्ठियों की ख़बरें भी छापते हैं हम ... अब बस करें आप ... बार बार हिंदी की दुर्गति दिखाकर मुझे पथभ्रष्ट न करो यार ... घर परिवार चल रहा मज़े में दुःख तो मुझे भी है ...  एक बार बच्चे सेट हो जाएँ फिर लिखूंगा और करूँगा हिंदी के लिए आन्दोलन "             
जबाब ने अब अगला सवाल तो नहीं दागने दिया ... हाँ एक सूत्र दिया अंग्रेजी के प्रति लगाव जानने के कारण का ... वो सूत्र था की आज के समय में लोग इक्षा से कम और मजबूरी से ज्यादा अंग्रेजियत को अपना रहें हैं ... खासकर पिछली पीढ़ी के लोग ... लेकिन आज की पीढ़ी तो पल बढ़ रही है अंग्रेजी में फिर उसकी काहे की मजबूरी ? मैंने खुद के मगज पर जोर डालने बेहतर सीधे उन्ही से बात करना ठीक समझा ... और अपना राटा रटाया सवाल दाग दिया ... जबाब आया ...
" मिस्टर शास्त्री हिंदी और हिंदी संस्कृति अब पुरानी बात हो गयी है ... It was basically a conservative culture, which always created obstacle in our global competence ... अब देखिये जब से हमने कान्वेंट कल्चर को अपनाया है The whole glob is in our reach ... Now we are trying to tune with that open culture who have very good civic sense and environment ... हिंदी मानसिकता का असर देख लीजिये, कैसे यहाँ रेप होते हैं, कानून लचर है और तो और यहाँ आप खुल के जी नहीं सकते !!
मैंने कहा ... यार ये तो कोई बात नहीं हुयी ... जिस कल्चर का तुम इनता बखान कर रहे हो, वर्षों से उसी कल्चर में रह रहे लोग उस से त्रस्त हैं ... वहाँ एकाकीपन है, भयानक मानसिक दबाब है, कभी कभी तो लोग अपने परिचय को मोहताज़ हैं ... सोसाइटी नाम की कोई चीज़ नहीं, लोग गली मोहल्लों वाले तक से मतलब नहीं रखते ... और जिस विकास की तुम बात कर रहे हो उसके लिए अपनी मौलिक भाषा को छोड़ना कोई जरूरी सिध्ध नियम नहीं है ... चाहे तो चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी को देख लो ... चीन का प्रधान मंत्री जो अंग्रेजी का अच्छा खासा जानकार है वो भी हिंदुस्तान में आकर अंग्रेजी नहीं बल्कि अपनी भाषा में भाषण देता है ... इससे अपने मौलिक भाषा के प्रति एक आत्मीयता बनी रहती है ... और जहां तक रेप और कानून की बात है तो दोस्त क्या अमेरिका और इंग्लैंड में रेप नहीं होते ? ... रिकॉर्ड के हिसाब से 2010 में  अमेरिका में 84764 और इंलैंड के एक इलाके  में 15934 केस पुलिस में दर्ज किये गए ... ऐसे  में इन बातों को आधार मान अपनी मौलिक संस्कृति को धता बताना किस हद तक ठीक है ? 
वो झल्लाते हुए हुए बोला  " लुक मिस्टर शास्त्री ... I cant believe on your data ... There is no need of rape ! ... वो सेक्स फ्री देश हैं ... वहाँ इसकी क्या जरूरत ? ... फिर भी अगर ऐसा है तो होगा ... हिंदी ने हमें दिया क्या सिर्फ गरीबी और बन्धनों के ? ... आज अंग्रेजी और अंग्रेजियत को अपनाकर हज़ारों लोग विदेशों में अच्छा खासा पैसा कमा रहें हैं ... They are happy with their life ... आप विदेश को तो छोडो, अगर आप कान्वेंट के पढ़े लिखे हो तो 12 वीं करते ही आप 15 हज़ार कमाना शुरू कर सकते हो, किसी भी कॉलसेंटर में और ... U can be financially independent ! "
मैंने कहा ... की दोस्त इस तरह से पैसा तो अंग्रेजी को अलग से सीख कर भी कमाया जा सकता है, जैसे हम फ्रेंच, चाइनीज, जर्मन और भाषा सीख कर काम करते हैं ... इसके लिए अपने मौलिक भाषा की बलि चढ़ा दी जाये ये किस हद तक जाएज है ... और एक बेहतर संस्कृति का त्याग भी उन लोगों के लिए जो आज भी तुम्हें अपने संस्कृति का हिस्सा नहीं मानते ... दशकों से वहां रच बस गए हम जैसे लोगों के साथ आज भी भेदभाव करते हैं ... और क्यूँ न करें वो समझ गए हैं की ये अपनी बुनियाद छोड़कर आये लोग है और मजबूर हैं ... हम चाहे कुछ भी व्यबहार करें इनके साथ ये बर्दाश्त करेंगे चुपचाप ... इनके पास कोई चारा नहीं !! 
इस बार साहेब थोडा ठिठके ... और बोले  " देखिये अगर आप किसी और कल्चर में जा रहें हैं तो आपको वहाँ के लोग और उस कल्चर को समझ के ही जाना होगा ... मैं मानता हूँ की इस तरह की घटनाएं आये दिन होती है वहाँ ... लेकिन मैं ये नहीं मान सकता की गलती अंग्रेजी समाज की है ... वो हमसे बहुत आगे हैं और ज्यादा नैतिक हैं ... जहां कहीं भी ऐसी घटना होती है उसमें जरूर हमारे लोगों की गतली रही होगी ... और मान ले की नहीं भी रही होगी तो भी क्या फर्क पड़ता ... अगर कोई समाज और भाषा आपको इतना सब कुछ दे रहा है तो  थोडा बहुत आप भी बर्दास्त करें न ! ... आखिर पैसा तो है न ? 
मैंने अचरज से पूछा  ... मतलब सिर्फ पैसा के लिए अपना मान मर्दन कराने में कोई गलत नहीं ? ... जिस भाषा को आप सिर्फ सीख कर वो सब हासिल कर सकते हैं और अपने मौलिक भाषा और संस्कृति की बुनियाद पर खड़े रह कर पूरे दुनिया से जुड़े रह सकते हैं ... इस व्यवस्था में क्या दिक्कत है ?
जबाब था  ... " देखिये चाहे आप अब मुझे लाख समझा लें लेकिन ये सच्चाई है की अब हिंदुस्तान में बिना हिंदी तो एक बार को जिया भी जा सकता है ... बिना अंग्रेजी गुजारा नहीं है ... और रही बात हिंदी के ख़त्म होने की ... तो इसे रोकने की ज़िम्मेदारी मेरी नहीं है ... मैं न तो हिंदी में पढ़ा लिखा और न ही मेरा हिंदी से कोई लगाव है ... मेरे आस पास हिंदी और उससे जुड़े लोगों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है ... सो मैं अंग्रेजी के साथ खुश हूँ ।
मुझे नहीं लगा की अब इसके बाद उनसे बात करने की जरूरत है ... लेकिन मैं खुद को संतुष्ट नहीं कर पाया ... पहले तो बात समझ में आती थी हमारे पास विकसित शैक्षणिक संस्थान नहीं थे, उनके शहरों के जैसे शहर नहीं थे और उनके देशो की तरह के व्यावसायिक अवसर नहीं थे ... लेकिन  आज तो कम से कम इतनी भी दिक्कत नहीं । जहां इतने सालों में विकास के साथ साथ हमें उस गुलामी से धीरे धीरे बाहर आना चाहिए था ... उल्टा हम और उनकी तरफ वफादारी बढ़ाते जा रहें हैं । धीरे धीरे मैं ये तो समझ गया था की वाकई अंग्रेजियत अब सिर्फ एक लुभाव नहीं बल्कि एक मजबूरी बन गयी ... लेकिन किस किस्म की मजबूरी ? ... इसे परिभाषित कैसे किया जाये ताकि सीधे सीधे समझ में आ जाये । 

पेशोपेश में और उनुत्त्रित मैं इस विषय से खुद को हटाने के लिए अपने सेल्फ में उन किताबों पर नज़र दौड़ाने लगा जिनके कुछ पन्ने बच गये हों पढने के लिए । तभी नज़र पड़ी एक किताब पर ... Fifty Shades Of Grey ... किताब को देखते ही लगा जैसे मेरे सवालों का जबाब मिल गया !! आइये बताता हूँ कैसे ?
दोस्तों इस किताब में नायक को Dominant और नायिका को Submissive दर्शाया गया है । नायिका, नायक के व्यक्तित्व और सामर्थ से इस कदर प्रभावित हो जाती है की मात्र कुछ दिनों के लिए भी उसकी submissive बनने की शर्त मान लेती है ... ये जानते हुए की अगर इन दिनों के उसके शारीरिक और मानसिक आचरण नायक को संतुष्ट नहीं कर सके तो उसे वापस जाना होगा । वो इस तरह के परिवेश से नहीं है और न ही इस परिवेश का उसे पता है ... फिर भी वो नायक को संतुष्ट करने के लिए उसके हर प्रयोग में साथ देती है । उसके साथ नायक ने कोई जबरदस्ती नहीं की है ... बल्कि सभी पीडाओं और यातनाओं का आभास पहले करा दिया होता है ... फिर भी वो राज़ी हो जाती है । नायक के साथ होने के समय हर पीड़ा उसे छलनी करता है लेकिन पूछे जाने पर वो कभी शिकायत नहीं करती ... उल्टा नायक को "सर" कहके संबोधित करना नहीं भूलती । क्यूंकि वो जानती है उसकी एक शिकायत इस कॉन्ट्रैक्ट को समय से पहले तोड़ देगा । जब जब वो नायक से दूर होती है तब तब उसे घृणा भी होती है इस रिश्ते से लेकिन नायक से प्रभावित नायिका दुबारा बुलाने पर पुनः सहर्ष अपना मान मर्दन को तैयार हो जाती है । 

मित्रों यही है वो जबाब जो मुझे मिला ... अंग्रेजियत का प्रभाव हमारे मानस पटल पर ऐसा छाया है की हम उसके Submissive बनने को सहर्ष तैयार हैं । अब हम उसकी दया पर हैं की किस हद तक हमारे मर्यादा का हनन करे । अगर कम से कम किया तो शान से यार दोस्तों में उठ बैठ लेंगे और बेहतर सामर्थ वालों में गिने जायेंगे ... और अगर ज्यादा कर दिया की चीख निकल गयी और लोगों तक आवाज़ पहुँच गयी तो भी कोई बात नहीं ... हम अपने नायक से कैसे शिकायत कर सकते हैं ? वो तो प्रभावशाली है हमें निकाल देगा ... चुपचाप बर्दाश्त करेंगे और "सर" संबोधन लगाना नहीं भूलेंगे । मतलब अंग्रेजी और अंग्रेजियत को हमने Dominant और हिंदी और हिंदी संस्कृति को Submissive बना दिया है ।
कई लोगों को ये लगेगा की 93% हिंदी या क्षेत्रीय भाषा भाषी और मात्र 7% अंग्रेजी भाषा भाषी भारतियों में अगर ये सभी अंग्रेजियत को स्वीकार कर भी रहें हैं तो क्या फर्क पड़ेगा ? ... तो ये न भूलिए की ये वही 7% लोग हैं जिन्हें पढ़ा लिखा समझ कर भविष्य निर्माण की ज़िम्मेदारी इन्ही की कन्धों पर दिया जायेगा ... फिर ये लोग अपने पीछे के लोगों को कहाँ पहुंचाएंगे इसका अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं ।

मेरे हिसाब से इस परिश्थिति में दो ही रास्ते हैं ...

एक तो वो लोग जिन्हें हिंदी और हिंदी संस्कृति में विस्वास है, मिलकर एक देश व्यापी आन्दोलन चलाये और सरकार एवं समाज को मजबूर कर दें की बगैर हिंदी अब देश नहीं चल सकता ।ये पागलपन नहीं जरूरत है आपकी ... जिस देश में बड़े पैमाने पर सरकारी पढाई लिखाई हिंदी या क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से हो रहा हो ... वहाँ ज्यादातर सरकारी और गैरसरकारी दफ्तरों में अंग्रेजी में काम काज का चलन क्यूँ ? कैसे तालमेल बैठायेगा उन स्कूल में पढ़ा एक व्यक्ति अपने काम काज से ? पहली कक्षा से 12 वीं तक जिसने हर विषय की बारीकियां और हर शब्द के हिज्जे हिंदी में आत्मसात किया हो वो एकाएक धाराप्रवाह अंग्रेजी की लिखाई और बोलाई कैसे झेल पायेगा ?

या दूसरा रास्ता है की हिंदी का मान मर्दन रोक कर उसे मौत दे दिया जाये ... सरेआम खुले में इसके साथ हो रहे कुकृत्य से इसको और छलनी होते देखना अब बर्दाश्त नहीं । अगर वाकई हमारे रगों में दौड़ रहा हिंदी संस्कृति का खून इतना गन्दा और मजबूर हो गया है की हम अब उसके साथ हो रहे घिनौनापन नहीं रोक पा रहें हैं, तो आइये एक बार हिम्मत करके इसे दफ़न कर देते हैं ... अंग्रेजी को राजभाषा घोषित करते हैं और हिन्दुस्तान के हर गली मोहल्ले में अंग्रेजी को व्यवहारिक बनाते हैं । कम से कम हमें किसी मौलिक भाषा के सामूहिक बलात्कार का मूक दर्शक तो नहीं बनना होगा हमें भविष्य में !!!

फैसला हमें करना है ...

Thursday, May 9, 2013

प्रेम बनाम अहंकार



मैंने सुना है एक बहुत पुराना वृक्ष था, आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे ।  उसपर फूल आते थे तो दूर दूर से पक्षी सुगंध लेने आते, उसपर फल लगते थे तो तितलियाँ उड़ती ।उसकी छाया, उसके वो फैले हाथ, हवाओं में खड़ा उसका वो विराट रूप बड़ा ही सुन्दर दीखता था । एक छोटा बच्चा उसकी छाया में रोज़ खेलने आता था, उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्चे से प्रेम हो गया । बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है अगर बड़ों को पता न हो की हम बड़े हैं । वृक्ष को कोई पता नहीं था की मैं बड़ा हूँ ... ये पता सिर्फ आदमी को होता है । इसलिए उसका प्रेम हो गया । अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से प्रेम करने की कोशिश करता है । अहंकार हमेशा अपनों से बड़ो से सम्बन्ध जोड़ता है । प्रेम के लिए कोई छोटा या बड़ा नहीं जो आ जाये उसी से सम्बन्ध जुड़ जाता है । वो एक छोटा सा बच्चा खेलने आता था वृक्ष के पास, उस वृक्ष का उस से प्रेम हो गया । लेकिन वृक्ष की शाखाएं ऊंची थी, बच्चा छोटा था, तो वृक्ष अपनी शाखाएं नीचे झुकाता, ताकि वो फल तोड़ सके - फूल तोड़ सके । 
प्रेम हमेशा झुकने को राज़ी है ... अहंकार कभी भी झुकने को राज़ी नहीं । अहंकार के पास जायेंगे तो उसके हाथ और ऊपर उठ जायेंगे ताकि कोई उसे छू न सके । क्यूंकि जिसे छू लिया जाये वो छोटा आदमी है ... जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्ली में हो वो आदमी बड़ा आदमी है ! 
वृक्ष हमेशा अपनी शाखाएँ नीचे झुकाती जब बच्चा उसके पास खेलने आता, और जब बच्चा उसके फूल तोड़ लेता तो वृक्ष बड़ा खुश होता । उसके प्राण आनंद से भर जाते । 
प्रेम जब भी कुछ दे पाता है तब खुश हो जाता है ... अहंकार जब कुछ ले पाता है तभी खुश होता है ! 
फिर वो बच्चा बड़ा होने लगा, वो कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बना के पहनता और जंगल का सम्राट हो जाता । प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसते हैं वही सम्राट हो जाता है । और जहाँ भी अहंकार गिरता है वही सब अंधकार हो जाता है, आदमी दीन और दरिद्र हो जाता है । वो लड़का फूलों का ताज पहनता और नाचता, वृक्ष ये देखकर बहुत आनंदित होता, हवाएं सनसनाती और वो गीत गाता । फिर लड़का और भी बड़ा हुआ, वो वृक्ष के ऊपर भी चढने लगा, उसकी शाखाओं से झूलने भी लगा । वो उसकी शाखाओं पर विश्राम भी करता और वृक्ष बहुत आनंदित होता । 
प्रेम आनंदित होता है जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है ... अहंकार आनंदित होता है जब किसी की छाया छीन लेता है ! 
अब धीरे - धीरे लड़का बड़ा होता गया जैसे - जैसे दिन बीतते गए । जब लड़का बड़ा हुआ तो उसे अब दुसरे काम भी आ गए । महत्वकांक्षाएं आ गयीं, उसे परीक्षाएं पास करनी थी, उसे मित्रों को जीतना था । फिर वो कभी कभी आता कभी न भी आता ... लेकिन वृक्ष रोज़ उसकी प्रतीक्षा करता की वो आये .. आये .. उसके सारे प्राण पुकारते की आओ .. आओ ...
प्रेम निरंतर प्रतीक्षा करता है की आओ .. आओ ... प्रेम एक प्रतीक्षा है ... एक awaiting है ! ... लेकिन वो कभी आता कभी नहीं आता तो वृक्ष उदास हो जाता । प्रेम की एक ही उदासी है ... जब वो बाँट नहीं पाता तो उदास हो जाता है । जब वो दे नहीं पाता तो उदास हो जाता है । और पेम की एक ही धन्यता है की जब वो बाँट देता है, दे देता है और लुटा देता है तो वो आनंदित हो जाता है । 
फिर वो लड़का और बड़ा होता चला गया वृक्ष के पास आने के दिन उतने कम होते चले गए । जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है, महत्वकांक्षा के जगत में प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है । 
उस लड़के के महत्वकांक्षा बढ़ रही थी ... कहाँ वृक्ष .. कहाँ जाना ! 
फिर एक दिन किसी कारण वो वहाँ से निकल रहा था तो वृक्ष ने पुकारा .. कहा .. सुनो !! 
हवाओं में उसकी आवाज़ गूंजी की ... सुनो मैं तुम्हारे लिए प्रतीक्षा करता हूँ .. राह देखता हूँ .. बाट जोहता हूँ ! 
उस लड़के ने कहा की .. क्या है तुम्हारे पास जो मैं अब आऊँ ? .. मुझे रुपये चाहिए !! 
हमेशा अहंकार पूछता है की क्या है तुम्हारे पास जो मैं आऊँ ! अहंकार मांगता है की कुछ हो तो मैं आऊँ ! न कुछ हो आने की कोई जरूरत नहीं .. अहंकार एक प्रयोजन है एक purpose है । प्रयोजन पूरा होता हो तो मैं आऊँ ! ... अगर कोई प्रयोजन नहीं है तो आने की जरूरत क्या है ? और प्रेम निष्प्रयोजन है, प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं । प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है, वो purposeless है । 
वृक्ष तो चौंक गया .. उसने कहा .. की तुम तभी आओगे जब मैं तुम्हें दे सकूं ? मैं तुम्हें सब दे सकता हूँ .. क्यूंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता । जो रोक ले वो प्रेम नहीं है ... अहंकार रोकता है ... प्रेम तो बेशर्त दे देता है । लेकिन रुपये मेरे पास नहीं है .. ये रुपये तो आदमी की ईजाद है .. वृक्षों ने तो ये बीमारी नहीं पाली है । उस वृक्ष ने कहा की इसलिए तो हम इतने आनंदित होते हैं .. इतने फूल खिलते हैं .. इतने फल लगते हैं .. इतनी बड़ी छाया होती है । हम इतना फैलते हैं आकाश में, हम इतने गीत गाते हैं और पक्षी हम पर आते हैं और संगीत का कलरव करते हैं । क्यूंकि हमारे पास रुपये नहीं हैं ... जिस दिन हमारे पास भी रुपये हो जायेंगे हम भी आदमी जैसे दीन - हीन मंदिरों में बैठकर सुनेंगे की शांति कैसे पायी जाये ... प्रेम कैसे पाया जाये ? नहीं हैं हमारे पास रुपये नहीं हैं !!  
तो लड़के ने कहा .. तो फिर मैं क्या आऊँ तुम्हारे पास .. जहाँ रुपये हैं वहां जाना पड़ेगा .. मुझे रुपये की जरूरत है । अहंकार रूपया मांगता है क्यूंकि रूपया शक्ति है .. अहंकार शक्ति मांगता है । उस वृक्ष ने गहनता से सोचा तो उसे ख्याल आया और कहा ... 
" तो  तुम एक काम करो .. तुम मेरे सारे फलों को तोड़कर ले जाओ .. और उसे बेच दो तो शायद रुपये मिल जाएँ "
और उस लड़के को भी ख्याल आया वो चढ़ा और सरे फल तोड़ डाले । कच्चे भी गिरा डाले .. शाखाएं भी टूटी .. पत्ते भी टूटे । लेकिन वृक्ष बहुत खुश हुआ .. बहुत आनंदित भी हुआ । टूट के भी प्रेम आनंदित होता है, अहंकार पा के भी आनंदित नहीं होता .. पा के भी दुखी ही रहता है । और उस लड़के ने तो धन्यवाद भी नहीं दिया पीछे लौट कर । लेकिन उस वृक्ष को तो पता भी नहीं चला, उसे तो धन्यवाद मिल गया इसी में कि उसने उसके प्रेम को स्वीकार किया .. उसके फल को तोड़ा और उसे बाज़ार में बेचा ।  
अब फिर लड़का कई दिनों तक नहीं आया । उसके पास रुपये थे .. वो रुपये से रूपया कमाने की जुगत में लग गया .. वो वृक्ष को भूल गया । वर्ष बीत गए और वृक्ष उदास है और उसके प्राणों में रस बह रहा है की वो आये उसका प्रेमी और ले जाये । जैसे किसी माँ के स्तन में दूध भरा हो और उसका बेटा खो गया हो और उसके सारे प्राण तड़प रहें हैं की उसका बेटा कहाँ है जिसे वो खोजे जो उसे हल्का कर दे नीर्भार कर दे । ऐसे उस वृक्ष के प्राण पीड़ित होने लगे की वो             आये .. आये .. आये उसकी साड़ी आवाज़ यही गूंजने लगी की .. आओ । बहुत दिनों बाद वो आया वो लड़का तो प्रौढ़ हो गया था। 
वृक्ष ने उससे कहा " आओ मेरे पास मेरे आलिंगन में आओ .. "
उसने कहा " छोडो ये बकवास ये बचपन की बातें हैं ! "
अहंकार प्रेम को पागलपन समझता है .. बचपन की बातें समझता है । 
उस वृक्ष ने कहा " आओ मेरे पास .. मेरे डालियों पर झूलो "
उसने कहा " छोडो ये फिजूल की बातें .. मुझे एक मकान बनाना है .. मकान दे सकते हो तुम ? "
वृक्ष ने कहा .. मकान ! .. हम तो बिना मकान के ही रहते हैं .. मकान में तो सिर्फ आदमी रहता है .. दुनियां में और कोई मकान में नहीं रहता .. सिर्फ आदमी रहता है .. सो देखते हो आदमी की हालत .. मकान में रहने वाले आदमी की हालत .. उसके मकान जितने बड़े होते जाते हैं आदमी उतना छोटा होता चला जाता है .. हम तो बिना मकान के रहते हैं .. लेकिन एक बात हो सकती है की अगर तुम मेरी शाखाओं को काटकर ले जाओ तो शायद तुम अपना मकान बना लो !
और वो प्रौढ़ कुल्हारी लेकर आ गया और उसने उस वृक्ष की शाखाएं काट डाली, वृक्ष एक ठूँठ रह गया नंगा लेकिन वृक्ष बहुत आनंदित था । प्रेम सदा आनंदित रहता है चाहे उसके अंग भी कट जायें .. लेकिन कोई ले जाये .. कोई बाँट ले .. कोई संम्मिलित हो जाये साझीदार हो जाये । और लड़के ने तो पीछे मुद कर भी नहीं देखा और उसने मकान बना लिया । 
और वक़्त गुजरता गया वो ठूंठ राह देखता वो चिल्लाना चाहता, लेकिन अब उसके पास पत्ते भी नहीं थे, शाखाएं भी नहीं थी । हवाएं आती और वो बोल भी नहीं पाता .. बुला भी न पाता । लेकिन उसके प्राणों में तो एक ही गूँज थी आओ - आओ । और जब बहुत दिन हो गए थे तब वो बच्चा जो अब बूढा हो गया था, पास से निकल रहा था वृक्ष के पास आ के खड़ा हो गया । तो वृक्ष ने पूछा .. क्या कर सकता हूँ मैं और तुम्हारे लिए ? ... तुम बहुत दिनों बाद आये !  
उसने कहा .. तुम क्या कर सकोगे ! .. मुझे दूर देश जाना है धन कमाने के लिए .. मुझे एक नाव की जरूरत है !
वृक्ष ने बिना सोचे कहा .. तुम मुझे और काट लो .. मेरे इस जड़ से नाव बन जाएगी .. और मैं बहुत धन्य होऊंगा कि मैं तुम्हारी नाव बन सकूं, मैं तुम्हें दूर देश ले जा सकूं । लेकिन तुम जल्दी लौट आना और सकुशल लौट आना .. मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा । 
लड़के ने आरे से उसे और काट डाला, अब वो पेड़ एक बहुत छोटा सा ठूंठ रह गया । और वो दूर यात्रा पर निकल गया । और वो ठूंठ भी प्रतीक्षा करता रहा कि वो आये - आये, लेकिन अब उसके पास कुछ नहीं देने को । सो शायद वो अब नहीं आएगा । क्यूंकि अहंकार वहीँ आता जहां कुछ पाने को है .. अहंकार वहाँ नहीं जाता जहां कुछ पाने को नहीं है । 
मैं उस ठूंठ के पास एक रात का मेहमान हुआ था तो वो ठूंठ मुझसे बोला .. मेरा मित्र अब तक नहीं आया .. मुझे बहुत अधिक पीड़ा होती है कि कहीं नाव डूब न गयी हो .. कहीं वो भटक न गया हो .. कहीं किसी दुसरे किनारे पर विदेश में भूल न गया हो .. कहीं वो डूब न गया हो .. कहीं वो समाप्त न हो गया हो । एक खबर भर कोई मुझे ला दे, अब मैं मरने के करीब हूँ .. एक खबर भर कोई ला दे कि वो सकुशल है .. फिर कोई बात नहीं .. फिर सब ठीक है .. अब तो मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है, सो अगर मैं बुलाऊँ भी तो शायद वो नहीं आएगा .. क्यूंकि वो सिर्फ लेने की ही भाषा समझता है । 
अहंकार लेने की भाषा समझता है ... प्रेम देने की भाषा है !  
इससे ज्यादा इस कहानी में सुनने और सुनाने के लिए कुछ नहीं है ... 

खुर्पेंचूं ने जुगत लड़ा के, दिया कहानी सुनाये 
समझ समझ के फेर में, कईयों को समझ न आये 
बात खुली और सच्ची है, अब किस किसको समझाये 
बालक वृक्ष में जो मन सोहे, वो खुद को वहीँ बिठाये ..   

कहानी ओशो वाणी का अंश है ...            
                   
                        

      

















                                      

Thursday, April 14, 2011

अब मुन्ना कि बारी है अन्ना !!!



भाई कमाल कर दिया अन्ना ने ... पूरे देश के लोगों को झनझना दिया ... अनशन कि रिपोर्ट टीवी पर देखते हुए ऐसा लग रहा था मानो हम आजादी से पहले के समय में लौट गए हों ... जंतर मंतर कि बात छोडिये गली मोहल्ले, बस स्टैंड, चाय कि दूकान और येहाँ तक कि दफ्तर में भी पूरा माहौल अन्नामय हो गया था .... हर कोई बस येही पूछता फिर रहा था कि चल रहें है जंतर मंतर ... मेरे 35 साल के उम्र में पहली बार मुझे लगा कि वाकई अब हिन्दुस्तान के दिन बदलने वाले हैं ... सबसे ज्यादा ख़ुशी तब हुयी जब मेरे एक रिपोर्टर मित्र ने बताया कि पूरे सैलाब में सबसे ज्यादा और जोर शोर से मुन्नाओं ने शिरकत की ... मुन्नाओं से मेरा मतलब नौजवानों से है ... मुझे सीधे यकीन नहीं हुआ ... मैंने अगले दिन खुद को विश्वास दिलाने के लिए अखबार खंघाल दिए ... ज्यादा से ज्यादा अन्ना परिचर्चाओं को टीवी पर सुना ... भाई बात सोलह आने सच निकली ... मुन्नाओं के जोश ने अन्ना के मुहिम को अच्छा खासा बल दिया ...  ना सिर्फ अभी , बल्कि अन्ना को वादा किया कि जब कभी भी आगे जरूरत पड़ेगी मुन्नाओं कि कमी नहीं होगी ... 

लेकिन रुको अन्ना के मुन्नाओं !!!!

ठिठको !!!! ...         

क्या तुम्हें होश है कि तुम क्या करने जा रहे हो !!!

मुन्नाओं ... तुम एक 73 साल के इमानदार, निःस्वार्थ और कमज़ोर बुजुर्ग को झूठी आश दिलाकर झाड पर चढ़ा रहे हो ... जिसका नतीजा तुम्हें भी बेहतर पता है ... उम्र के इस पड़ाव में झाड पर चढ़ने के क्या हश्र हो सकते हैं ...
तुम सोच रहे होगे कि आज खुर्पेंचुं पक्का भांग खाके लिखने बैठा है ... " अरे अन्ना का ये हश्र तो तब होगा ना जब हम उसके साथ नहीं होंगे " .... 
तो मुन्नाओं आओ तुम्हें आईना दिखा दूं ... फिर फैसला करेंगे कि अन्ना का क्या होगा ... :)
तुम्हें ज़रा भी होश है कि जो झंडा उठाकर तुम अन्ना के पीछे चल पड़े हो वो किसके खिलाफ है ? .... गांधी कि याद दिलाने वाले अन्ना ने ये लड़ाई दुबारा से अंग्रेजो के खिलाफ नहीं छेड़ी है बंधुओं ... और ना ही सत्तासीन सरकार के खिलाफ ... ये लड़ाई है हमारे खुद के खिलाफ ... क्यूंकि देश को भ्रष्टाचार के चरम पर पहुंचाने में सरकार में शामिल हमारे ही पापाओ और चाचाओं का हाथ है ... तुम भूल रहे हो कि जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ आज तुम्हारा खून खौला है ... उसी खून का एक एक बूँद हमारे पापाओं और चाचाओं के अवैध कमाई का कर्ज़दार है ... ऐसे में तुम्हारा ये विद्रोह कहाँ तक ठठा रहेगा ... कल जब फिर से अन्ना जंतर मंतर पर तुम्हें बुलायेंगे और निकलने से पहले अगर पापा ने उस क़र्ज़ कि याद दिला दी तो क्या जबाब दोगे ? ... या फिर अभी तक वातानुकूलित कमरे और गाड़ियों में रचे बसे अपने शरीर को कब तक अन्ना के चक्कर में जंतर मंतर और इंडिया गेट कि धुप में जला पाओगे ? 
रुको !!! कहीं तुम इस ग़लतफहमी में तो नहीं कि फ़िल्मी सीन कि तरह एक दो बार माहौल बना देना है और देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाएगा ? ... तो मुन्नाओं तुम्हारी ग़लतफहमी दूर कर दूं ... आजादी कि लड़ाई में तो फिर भी एक दिन आया था 14 अगस्त 1947 कि मध्यरात्री ... जब नेहरु जी ने tryst of destiny पढ़ कर देश कि जनता को ये बताया कि अब हम आज़ाद हैं .... लेकिन  अन्ना जिस लड़ाई को लड़ने जा रहें हैं उसमें ऐसा दिन कभी नहीं आएगा .... जो भ्रष्टाचार हमारे नसों में घुस चुका है वो इतनी आसानी से हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा  .... अगर हम सब मिलकर आज ठान भी लें, तो भी जब तक नई पीढ़ी का साफ़ खून सत्ता ना संभाल ले हमें अपनी निगाहें तिरछी ही रखनी होगी ... क्यूंकि अवैध कमाई भी कहीं ना कहीं एक लत कि तरह है ... जो शुरू में आदमी शौक में करता है, बाद में मजबूरी बन जाती है ... और जिसे एक बार ये लत लग गयी, उसके लत को कम करने कि कोशिश तो कि जा सकती है लेकिन पूरी तरह ख़त्म तो ये व्यक्ति के साथ ही हो पाएगी .... 

सो मुन्नाओं अगर पूरी पीढी कि लड़ाई का ज़ज्बा हो तो आगे बढ़ना .... और हाँ तुम आने वाली पीढी के खून में अगर कोई संक्रमण नहीं चाहते आज के भ्रष्टाचार का, तो आज से ही तुम्हें भी अपने पापाओं और चाचाओं  से सवाल पूछना शुरू करना होगा .... घर में भौतिकता के एक एक जुड़ाव का हिसाब लेना होगा .... परिवार के हर गृहप्रवेश और गाडी कि मिठाई खाने से पहले ये पूछने का माद्दा पैदा करना होगा कि ये आया कहाँ से .... अगर तुम ऐसा नहीं कर पाए तो फिर तुम्हारी भूल है कि तुम या तुम्हारी आने वाली पीढी कभी भ्रष्टाचार मुक्त समाज में सांस ले पायेंगे .... 

क्या तुम ऐसा कर पाओगे ?...
नहीं ना !!! .... खुद से सवाल पूछना इतना आसान नहीं है मुन्नाओं !!! ये नामुमकिन है आधुनिकता और भौतिकवाद के दौड़ में :(
तभी मैंने तुम्हें कहा कि बेचारे अन्ना को झाड पर मत चढाओ .... अन्ना के पास ना परिवार है और ना ही शौक .... उसने अपना जीवन दान दे दिया है देश को .... वो जितने भी दिन जियें अगर इस मुगालते में जियें कि देश के हालात बेहतर होंगे तो इसमें क्या बुराई है .... उसने अभी तक जितना दिया है देश को उसके बदले में ही उसे ये दे दो .... 
उसे झूठी उम्मीद मत दो .... अगर वाकई अन्ना को देना चाहते हो तो बस आज से अपने घर में सवाल पूछना शुरू कर दो .... अन्ना कि आधी जीत यहीं हो जायेगी .... 

तो जो ऊपर लिखित से सहमत हो वो सब मिलकर अन्ना को बस एक लाइन में कहें .....
" अब मुन्ना कि बारी है अन्ना "

और घर में भी एक ही लाइन में सवाल पूछें ...
" सब कंट्रोल में हैं ना ...? "


आओ आज से ही शुरू करे अन्नागिरी ....

खुर्पेंचूं ने रिस्क लैके, नुश्खा दिया बताये   
सांप पीटन के फेर में, कहीं लाठी टूट ना जाए 
आँख दबाईके धीरे से पूच्छो .... " सब कंट्रोल में हैं ना भाए "  

Sunday, August 15, 2010

लोर्ड मैकाले महान थे या हम बेवकूफ ....

LORD MACAULAY ADDRESS TO THE BRITISH PARLIAMENT, 2 FEBRUARY, 1835
I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such calibre, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native culture and they will become what we want them, a truly dominated nation.

ऊपर लिखे वाक्यों को पढने के बाद हम में से कईयों को तो सरदर्द हो जाता है ... क्या बेबकूफी है भाई ... 175 साल पहले कही गयी बात को आज सुनाने का क्या मतलब ... वो समय और था, हमारा जीवन स्तर और था, हम शिक्षित नहीं थे तो लोर्ड मैकाले ने ये बात कह दी थी .... आज उसे याद करके क्या फायेदा ... 
बात ठीक भी है भाई ... अब अंग्रेज ही नहीं रहे तो उनकी कही गयी बातों का क्या ? अब ये देश हमारा है जैसे चाहेंगे वैसे चलाएंगे ... 
मेरे दोस्तों अगर वाकई ऐसे ही विचार मन में उठ रहें हो तो मेरी विनती है की एक बार फिर दिमाग के सारे दरवाजे खोल कर ऊपर की लाईनों से गुजर जाएँ ... मुझे यकीन है की इस पूरे कथन का मर्म आप समझ तो लेंगे ही ... लेकिन बिना अपना दृष्टिकोण घुसेड़े मानेंगे नहीं ... ये आपका नहीं हम पढ़े लिखे कौम की खासियत है अगर बात सीधे सीधे मान लें तो फिर पढ़ा लिखा होने का क्या फ़ायेदा .... खैर छोडिये इस बेहेस को बाद में करेंगे कभी ... 
मैं आज अपनी ये बात सिर्फ अपने उन साथियों तक पहुँचाना चाहता हूँ जो सही मायेने में शिक्षित हैं, और उन्ही के कन्धों पर कहीं न कहीं आने वाले भारत के भविष्य निर्माण की ज़िम्मेदारी होगी ... प्रतक्ष्य रूप से हम आज़ाद आज से 63 साल पहले हो गए लेकिन आज भी हम अंग्रेजियत के ग़ुलाम हैं, या यूँ कहें की जाते जाते अंग्रेजों ने हमारी तरफ अपनी तड़क भड़क वाली सभ्यता की ऐसी मुमफली फेंकी जिसे हमने 14 अगस्त सन 1947 की रात से ही फोड़ फोड़ के खाना शुरू कर दिया ... और वो भी गर्व के साथ ... कहीं न कहीं ये इसी लुभावने सभ्यता का एक दबाब था हमारे मानसिकता पर जिसने हमें Tryst of Destiny को भी अंग्रेजी में सुनाने और सुनने के लिए तैयार कर दिया था .... वर्ना ऐसा नहीं था की नेहरु जी की हिंदी पर पकड़ कमजोर थी या फिर वहाँ बैठे लोगों को हिंदी सुनने से परहेज था  ... सवाल सिर्फ भाषा के इस्तेमाल का नहीं था, सवाल हिंदी के साथ भावनात्मक जुड़ाव का था, जो उसी समय से धीरे धीरे कमजोर होता जा रहा था और आज तो ये आलम है की अगर कोई शुध्ध हिंदी के दो चार वाक्य बोल दे तो हम उसे टेडी निगाह से देखने लगते हैं... कहीं ये मुझ पर व्यंग तो नहीं कर रहा .... कहने का मतलब शुध्ध हिंदी अब व्यंग की भाषा है और अच्छी अंग्रेजी आपके शिक्षित होने का सबूत ...
अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न कभी बुरा था और न ही रहेगा .... लेकिन समस्या तब खड़ी होने लगती है जब हम अंग्रेजियत के आदि होने लगते हैं .... और इसी कि नीव लोर्ड मैकाले ने आज से 175 साल पहले रख दी थी .... सुप्रीम काउन्सिल ऑफ़ इंडिया में अपने 1834 से 1838 तक सेवा काल में, मैकाले ने गवर्नर जेनेरल को विस्वास में लेकर अंग्रेजी को उच्च शिक्षा का मुख्य माध्यम बनवा डाला .... आज मैकाले ने जिस इमारत की नीव रखी थी वो हिन्दुस्तान में बुलंदियों को छू रहा है ... मैकाले की आत्मा अब संतुष्ट होगी की उसने जैसा सोचा था वैसा हो गया .... और हम हिन्दुस्तानियों के समझ पर चकित भी होगी की कैसे समझदार भारतीय हैं ... जिस मनसा को मैंने 175 साल पहले बिलकुल साफ़ साफ़ कह दिया था वो ये लोग आज तक नहीं समझे .....

तुम महान थे मैकाले ....  या हम वाकई बेवकूफ हैं ....