Blogvani.com आपमरूदा....: देखिये ये हिंदी है !!

Monday, May 20, 2013

देखिये ये हिंदी है !!





दोस्तों आज मैं मज़ाक के मूड में नहीं ... आज मैं वाकई दुखी हूँ की मेरा जन्म भारत में क्यूँ हुआ । और जो चलिए हो भी गया तो बिहार जैसे हिंदी भाषा - भाषी प्रदेश ही मिला था मुझे जन्म लेने के लिए । कहीं दक्षिण भारत में होता तो अपने क्षेत्रीय भाषा के साथ साथ अंग्रेजी से भी मेरा उतना ही भावनात्मक लगाव होता और भारत में अपने ही लोगों के दोगलेपन की शिकार हिंदी के मौत के मुंह में जाते हुए देखने में दुःख नहीं होता । अपने इस अभागेपन पर दुःख से ज्यादा रोष होता है । सिर्फ 12 साल की पूरी उम्र जीने वाला घर का कुकुर अगर बीमार हो जाये तो उसके लिए आज भी हम अपना पूरा जोर लगा देते हैं की वो बच जाये और बांकी के दो चार साल और जी ले हमारे साथ । लेकिन पता नहीं हिंदी ने हमारे साथ क्या दुर्व्यब्हार किया भूत में कि वर्तमान में उसके साथ बलात्कार जैसी घटनाओं के बाद भी हमारी संवेदनाएं नहीं जगती उसके लिए । छोटे शहरों और कम शिक्षितों की तो बात छोडिये, मेट्रो में रहने वाले विशिष्ठों और विशेष शिक्षितों का भी कभी ध्यान नहीं जाता इस पर । आज जहां भारतवर्ष में एक बलात्कार की घटना से संवेदित समाज की मुहीम से कुछ ही दिनों में संविधान की धाराओं में संशोधन करवा देता है । वहाँ हिंदी के साथ हर मोड़, चौराहे, दफ्तर, स्कूल और संस्थानों में हो रही अभद्रदता कैसे आराम से पचा पा रहा है ? हिंदी नाम की इस औरत के एक एक कपडे रोज़ और हर प्रहर अग्रेज़ी बोलने और समझने वाले हिंदी हांथों से उतारे जा रहें हैं और कोई कुछ बोल तक नहीं पा रहा ? क्यूँ ? क्या कारण है ?
बहुत सोचने के बाद भी मैं कोई ठोस उत्तर नहीं ढूंढ पा रहा था ... काफी दिनों तक सोच नहीं पाया की आखिर हिंदी के साथ हमारा ऐसा विलगाव क्यूँ हुआ ? 
फिर मैंने पिछले कई दिनों से लगातार इस प्रश्न को अलग अलग वर्गों में रखना शुरू किया और सवालों से संतुष्ट होने की कोशिश करने लगा ।
सबसे पहले मैंने इसे हिंदी और हिंदी संस्कृति से लगाव रखने वाले कुछ मित्रों के सामने रखा ... सवाल रखने की देर थी भड़ास फूट पड़ी ...
" ये सब आजादी के समय अंग्रेजों की साजिश और हमारे तत्काल के देश के कर्णधारों की गलती है ... अगर उसी वक़्त सारी शिक्षा और काम काज को हिंदी में कराना जरूरी बना दिया होता तो आज हिंदी की ये दशा न होती ... क्या जिन देशों ने अपने मौलिक भाषाओं को पकड़ कर रखा उनका विकास नहीं हुआ ? जापान और जर्मनी को देख लीजिये ! "
सवाल जायज था लेकिन, कारण उतने ठोस नहीं ... सो मैं बहुत ज्यादा संतुष्ट नहीं हुआ ।
मेरा अगला पड़ाव था हमारे समाज में प्रतिष्ठित पत्रकार बन्धुओं का दरवाज़ा ... पत्रकार बंधुओं ने बड़े ही शालीन और मजबूर भाव से हिंदी की दुर्दशा पर चर्चा की ...
" भई देखिये हिंदी का देशव्यापी इस्तेमाल व्यबहारिक रूप में संभव कहाँ है ... पूरा दक्षिण हिंदी को अपनाने के लिए तैयार नहीं है ... बल्कि क्षेत्रीय भाषा के अलावा अंग्रेजों के समय से चली आ रही अंग्रेजी के साथ वो अब ज्यादा सहज हैं ... पूरे देश में सरकारी काम काज ज्यादातर अंग्रेजी में हो रहे हैं ... अब ऐसे में एकदम से तो हिंदी नहीं थोपा जा सकता न ! ... जैसे जैसे कान्वेंट कल्चर बढ़ रहा है नयी पीढ़ी अंग्रेजी के साथ ज्यादा आसानी से आगे बढ़ पा रही है ... तो हिंदी का ह्रास तो होगा ही ! "
जब मैंने कहा कि आपको नहीं महसूस होता की अपने देश की इस मौलिक भाषा और संस्कृति को बचाना चाहिए, ताकि हमारी अपनी पहचान बच सके ... जिसकी कद्र गाहे बगाहे पूरी दुनिया करती है ? और इसमें सबसे ज़िम्मेदार आप पत्रकारों को होने की जरूरत है ... तो जबाब मज़ेदार था ...
" देखिये सबसे पहले तो आप समझ लीजिये कि हिंदी की इस दुर्गति के ज़िम्मेदार हम नहीं हैं ... हम तो अपना काम कर ही रहें हैं न ... अब अगर पाठक ही नहीं हैं तो हिंदी के लेखक किसके लिए लिखेंगे ? ... हम लोगों को ज़बरदस्ती हिंदी घोल के पिला तो सकते नहीं है !! "
मैंने कहा बंधू ये कैसी व्यथा है ... जिस देश में तीन चौथाई से ज्यादा आबादी हिंदी बोल और समझ लेती है ... जो भाषा विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है ... उसके पाठक नहीं मिल रहे ? ... जबाब था ...
" भई शास्त्री जी बात को समझिये ... ये वो आंकड़े हैं जो सिर्फ बोलचाल में हिंदी का इस्तेमाल करते हैं वो भी आधा अधुरा ... जब इन्हें किताब खरीदनी होती है तो " गोदान " का भी अंग्रेजी तर्जुमा ढूंढते हैं ... भाई अंग्रेजी अब जीवन जीने की मजबूरी है ... हमारा घर बोलचाल की हिंदी से नहीं चलता, खरीदी गयी हिंदी पत्र - पत्रिकाओं से चलता है ... पिछले दस - बारह साल से विदेशी संस्थानों के आने और अंग्रेजी के विस्तार ने हमें थोड़ी राहत दी है ... अंग्रेजी समाचार माध्यमों के गुच्छे में हिंदी के एक आध वेबसाइट या पत्रिका ने अब हमारी हैसियत थोड़ी बदली है  ... अब पत्रकार झोला छाप और चप्पल चट्काऊ वाले इमेज से बाहर आ रहा है ... और आप हिंदी का रोना लिए बैठे हैं ... अरे इतने हिंदी चैनल हैं, वेबसाइट हैं, मासिक और पाक्षिक पत्रिकाएं हैं ... और कितना विकास चाहते हैं हिंदी का आप ? और हिंदी का साहित्यिक स्वरुप भी बचा रहे इसके लिए भी हम प्रयासरत हैं समय - समय पर कवि सम्मलेन और विचार गोष्ठियों की ख़बरें भी छापते हैं हम ... अब बस करें आप ... बार बार हिंदी की दुर्गति दिखाकर मुझे पथभ्रष्ट न करो यार ... घर परिवार चल रहा मज़े में दुःख तो मुझे भी है ...  एक बार बच्चे सेट हो जाएँ फिर लिखूंगा और करूँगा हिंदी के लिए आन्दोलन "             
जबाब ने अब अगला सवाल तो नहीं दागने दिया ... हाँ एक सूत्र दिया अंग्रेजी के प्रति लगाव जानने के कारण का ... वो सूत्र था की आज के समय में लोग इक्षा से कम और मजबूरी से ज्यादा अंग्रेजियत को अपना रहें हैं ... खासकर पिछली पीढ़ी के लोग ... लेकिन आज की पीढ़ी तो पल बढ़ रही है अंग्रेजी में फिर उसकी काहे की मजबूरी ? मैंने खुद के मगज पर जोर डालने बेहतर सीधे उन्ही से बात करना ठीक समझा ... और अपना राटा रटाया सवाल दाग दिया ... जबाब आया ...
" मिस्टर शास्त्री हिंदी और हिंदी संस्कृति अब पुरानी बात हो गयी है ... It was basically a conservative culture, which always created obstacle in our global competence ... अब देखिये जब से हमने कान्वेंट कल्चर को अपनाया है The whole glob is in our reach ... Now we are trying to tune with that open culture who have very good civic sense and environment ... हिंदी मानसिकता का असर देख लीजिये, कैसे यहाँ रेप होते हैं, कानून लचर है और तो और यहाँ आप खुल के जी नहीं सकते !!
मैंने कहा ... यार ये तो कोई बात नहीं हुयी ... जिस कल्चर का तुम इनता बखान कर रहे हो, वर्षों से उसी कल्चर में रह रहे लोग उस से त्रस्त हैं ... वहाँ एकाकीपन है, भयानक मानसिक दबाब है, कभी कभी तो लोग अपने परिचय को मोहताज़ हैं ... सोसाइटी नाम की कोई चीज़ नहीं, लोग गली मोहल्लों वाले तक से मतलब नहीं रखते ... और जिस विकास की तुम बात कर रहे हो उसके लिए अपनी मौलिक भाषा को छोड़ना कोई जरूरी सिध्ध नियम नहीं है ... चाहे तो चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी को देख लो ... चीन का प्रधान मंत्री जो अंग्रेजी का अच्छा खासा जानकार है वो भी हिंदुस्तान में आकर अंग्रेजी नहीं बल्कि अपनी भाषा में भाषण देता है ... इससे अपने मौलिक भाषा के प्रति एक आत्मीयता बनी रहती है ... और जहां तक रेप और कानून की बात है तो दोस्त क्या अमेरिका और इंग्लैंड में रेप नहीं होते ? ... रिकॉर्ड के हिसाब से 2010 में  अमेरिका में 84764 और इंलैंड के एक इलाके  में 15934 केस पुलिस में दर्ज किये गए ... ऐसे  में इन बातों को आधार मान अपनी मौलिक संस्कृति को धता बताना किस हद तक ठीक है ? 
वो झल्लाते हुए हुए बोला  " लुक मिस्टर शास्त्री ... I cant believe on your data ... There is no need of rape ! ... वो सेक्स फ्री देश हैं ... वहाँ इसकी क्या जरूरत ? ... फिर भी अगर ऐसा है तो होगा ... हिंदी ने हमें दिया क्या सिर्फ गरीबी और बन्धनों के ? ... आज अंग्रेजी और अंग्रेजियत को अपनाकर हज़ारों लोग विदेशों में अच्छा खासा पैसा कमा रहें हैं ... They are happy with their life ... आप विदेश को तो छोडो, अगर आप कान्वेंट के पढ़े लिखे हो तो 12 वीं करते ही आप 15 हज़ार कमाना शुरू कर सकते हो, किसी भी कॉलसेंटर में और ... U can be financially independent ! "
मैंने कहा ... की दोस्त इस तरह से पैसा तो अंग्रेजी को अलग से सीख कर भी कमाया जा सकता है, जैसे हम फ्रेंच, चाइनीज, जर्मन और भाषा सीख कर काम करते हैं ... इसके लिए अपने मौलिक भाषा की बलि चढ़ा दी जाये ये किस हद तक जाएज है ... और एक बेहतर संस्कृति का त्याग भी उन लोगों के लिए जो आज भी तुम्हें अपने संस्कृति का हिस्सा नहीं मानते ... दशकों से वहां रच बस गए हम जैसे लोगों के साथ आज भी भेदभाव करते हैं ... और क्यूँ न करें वो समझ गए हैं की ये अपनी बुनियाद छोड़कर आये लोग है और मजबूर हैं ... हम चाहे कुछ भी व्यबहार करें इनके साथ ये बर्दाश्त करेंगे चुपचाप ... इनके पास कोई चारा नहीं !! 
इस बार साहेब थोडा ठिठके ... और बोले  " देखिये अगर आप किसी और कल्चर में जा रहें हैं तो आपको वहाँ के लोग और उस कल्चर को समझ के ही जाना होगा ... मैं मानता हूँ की इस तरह की घटनाएं आये दिन होती है वहाँ ... लेकिन मैं ये नहीं मान सकता की गलती अंग्रेजी समाज की है ... वो हमसे बहुत आगे हैं और ज्यादा नैतिक हैं ... जहां कहीं भी ऐसी घटना होती है उसमें जरूर हमारे लोगों की गतली रही होगी ... और मान ले की नहीं भी रही होगी तो भी क्या फर्क पड़ता ... अगर कोई समाज और भाषा आपको इतना सब कुछ दे रहा है तो  थोडा बहुत आप भी बर्दास्त करें न ! ... आखिर पैसा तो है न ? 
मैंने अचरज से पूछा  ... मतलब सिर्फ पैसा के लिए अपना मान मर्दन कराने में कोई गलत नहीं ? ... जिस भाषा को आप सिर्फ सीख कर वो सब हासिल कर सकते हैं और अपने मौलिक भाषा और संस्कृति की बुनियाद पर खड़े रह कर पूरे दुनिया से जुड़े रह सकते हैं ... इस व्यवस्था में क्या दिक्कत है ?
जबाब था  ... " देखिये चाहे आप अब मुझे लाख समझा लें लेकिन ये सच्चाई है की अब हिंदुस्तान में बिना हिंदी तो एक बार को जिया भी जा सकता है ... बिना अंग्रेजी गुजारा नहीं है ... और रही बात हिंदी के ख़त्म होने की ... तो इसे रोकने की ज़िम्मेदारी मेरी नहीं है ... मैं न तो हिंदी में पढ़ा लिखा और न ही मेरा हिंदी से कोई लगाव है ... मेरे आस पास हिंदी और उससे जुड़े लोगों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है ... सो मैं अंग्रेजी के साथ खुश हूँ ।
मुझे नहीं लगा की अब इसके बाद उनसे बात करने की जरूरत है ... लेकिन मैं खुद को संतुष्ट नहीं कर पाया ... पहले तो बात समझ में आती थी हमारे पास विकसित शैक्षणिक संस्थान नहीं थे, उनके शहरों के जैसे शहर नहीं थे और उनके देशो की तरह के व्यावसायिक अवसर नहीं थे ... लेकिन  आज तो कम से कम इतनी भी दिक्कत नहीं । जहां इतने सालों में विकास के साथ साथ हमें उस गुलामी से धीरे धीरे बाहर आना चाहिए था ... उल्टा हम और उनकी तरफ वफादारी बढ़ाते जा रहें हैं । धीरे धीरे मैं ये तो समझ गया था की वाकई अंग्रेजियत अब सिर्फ एक लुभाव नहीं बल्कि एक मजबूरी बन गयी ... लेकिन किस किस्म की मजबूरी ? ... इसे परिभाषित कैसे किया जाये ताकि सीधे सीधे समझ में आ जाये । 

पेशोपेश में और उनुत्त्रित मैं इस विषय से खुद को हटाने के लिए अपने सेल्फ में उन किताबों पर नज़र दौड़ाने लगा जिनके कुछ पन्ने बच गये हों पढने के लिए । तभी नज़र पड़ी एक किताब पर ... Fifty Shades Of Grey ... किताब को देखते ही लगा जैसे मेरे सवालों का जबाब मिल गया !! आइये बताता हूँ कैसे ?
दोस्तों इस किताब में नायक को Dominant और नायिका को Submissive दर्शाया गया है । नायिका, नायक के व्यक्तित्व और सामर्थ से इस कदर प्रभावित हो जाती है की मात्र कुछ दिनों के लिए भी उसकी submissive बनने की शर्त मान लेती है ... ये जानते हुए की अगर इन दिनों के उसके शारीरिक और मानसिक आचरण नायक को संतुष्ट नहीं कर सके तो उसे वापस जाना होगा । वो इस तरह के परिवेश से नहीं है और न ही इस परिवेश का उसे पता है ... फिर भी वो नायक को संतुष्ट करने के लिए उसके हर प्रयोग में साथ देती है । उसके साथ नायक ने कोई जबरदस्ती नहीं की है ... बल्कि सभी पीडाओं और यातनाओं का आभास पहले करा दिया होता है ... फिर भी वो राज़ी हो जाती है । नायक के साथ होने के समय हर पीड़ा उसे छलनी करता है लेकिन पूछे जाने पर वो कभी शिकायत नहीं करती ... उल्टा नायक को "सर" कहके संबोधित करना नहीं भूलती । क्यूंकि वो जानती है उसकी एक शिकायत इस कॉन्ट्रैक्ट को समय से पहले तोड़ देगा । जब जब वो नायक से दूर होती है तब तब उसे घृणा भी होती है इस रिश्ते से लेकिन नायक से प्रभावित नायिका दुबारा बुलाने पर पुनः सहर्ष अपना मान मर्दन को तैयार हो जाती है । 

मित्रों यही है वो जबाब जो मुझे मिला ... अंग्रेजियत का प्रभाव हमारे मानस पटल पर ऐसा छाया है की हम उसके Submissive बनने को सहर्ष तैयार हैं । अब हम उसकी दया पर हैं की किस हद तक हमारे मर्यादा का हनन करे । अगर कम से कम किया तो शान से यार दोस्तों में उठ बैठ लेंगे और बेहतर सामर्थ वालों में गिने जायेंगे ... और अगर ज्यादा कर दिया की चीख निकल गयी और लोगों तक आवाज़ पहुँच गयी तो भी कोई बात नहीं ... हम अपने नायक से कैसे शिकायत कर सकते हैं ? वो तो प्रभावशाली है हमें निकाल देगा ... चुपचाप बर्दाश्त करेंगे और "सर" संबोधन लगाना नहीं भूलेंगे । मतलब अंग्रेजी और अंग्रेजियत को हमने Dominant और हिंदी और हिंदी संस्कृति को Submissive बना दिया है ।
कई लोगों को ये लगेगा की 93% हिंदी या क्षेत्रीय भाषा भाषी और मात्र 7% अंग्रेजी भाषा भाषी भारतियों में अगर ये सभी अंग्रेजियत को स्वीकार कर भी रहें हैं तो क्या फर्क पड़ेगा ? ... तो ये न भूलिए की ये वही 7% लोग हैं जिन्हें पढ़ा लिखा समझ कर भविष्य निर्माण की ज़िम्मेदारी इन्ही की कन्धों पर दिया जायेगा ... फिर ये लोग अपने पीछे के लोगों को कहाँ पहुंचाएंगे इसका अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं ।

मेरे हिसाब से इस परिश्थिति में दो ही रास्ते हैं ...

एक तो वो लोग जिन्हें हिंदी और हिंदी संस्कृति में विस्वास है, मिलकर एक देश व्यापी आन्दोलन चलाये और सरकार एवं समाज को मजबूर कर दें की बगैर हिंदी अब देश नहीं चल सकता ।ये पागलपन नहीं जरूरत है आपकी ... जिस देश में बड़े पैमाने पर सरकारी पढाई लिखाई हिंदी या क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से हो रहा हो ... वहाँ ज्यादातर सरकारी और गैरसरकारी दफ्तरों में अंग्रेजी में काम काज का चलन क्यूँ ? कैसे तालमेल बैठायेगा उन स्कूल में पढ़ा एक व्यक्ति अपने काम काज से ? पहली कक्षा से 12 वीं तक जिसने हर विषय की बारीकियां और हर शब्द के हिज्जे हिंदी में आत्मसात किया हो वो एकाएक धाराप्रवाह अंग्रेजी की लिखाई और बोलाई कैसे झेल पायेगा ?

या दूसरा रास्ता है की हिंदी का मान मर्दन रोक कर उसे मौत दे दिया जाये ... सरेआम खुले में इसके साथ हो रहे कुकृत्य से इसको और छलनी होते देखना अब बर्दाश्त नहीं । अगर वाकई हमारे रगों में दौड़ रहा हिंदी संस्कृति का खून इतना गन्दा और मजबूर हो गया है की हम अब उसके साथ हो रहे घिनौनापन नहीं रोक पा रहें हैं, तो आइये एक बार हिम्मत करके इसे दफ़न कर देते हैं ... अंग्रेजी को राजभाषा घोषित करते हैं और हिन्दुस्तान के हर गली मोहल्ले में अंग्रेजी को व्यवहारिक बनाते हैं । कम से कम हमें किसी मौलिक भाषा के सामूहिक बलात्कार का मूक दर्शक तो नहीं बनना होगा हमें भविष्य में !!!

फैसला हमें करना है ...

No comments:

Post a Comment